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व्याप्त रहता है, वह दूसरों को दुःखी देखकर खुश होता है, दुःखी प्राणी के प्रति उसके हृदय में अनुकम्पा, दया या सहानुभूति प्रकट नहीं होती है। अनुचित काम करने के बाद उसे पश्चाताप भी नहीं होता, अपितु पापाचरण करके वह हर्षित, पुलकित, प्रमुदित होता है- ऐसा व्यक्ति रौद्रध्यान वाला कहा गया है।
रौद्रध्यान के चार भेद ध्यानशतक ग्रन्थ के ग्रन्थकार ने रौद्रध्यान के लक्षणों द्वारा उसे परिभाषित करते हुए कहा है कि सामान्यतया क्रूरतापूर्ण विचार व कार्य अथवा तीनों योगों (मन, वचन, काया) से हिंसादि के प्रति रागात्मक-अध्यवसाय रौद्रध्यान है। जो भौतिक सुख-सुविधाओं में आसक्त बनकर, कर्तव्य-अकर्तव्य का भान भुलाकर तथा क्रूर आशय वाला बनकर स्व एवं पर के प्रति अहितकारी कार्य करता है, वह रौद्रध्यानी है। यह रौद्रध्यान हिंसानुबन्धी, मृषानुबन्धी, स्तेयानुबन्धी और विषयसंरक्षणानुबन्धी- ऐसा चार प्रकार का होता है।
1. हिंसानुबन्धी-रौद्रध्यान - ग्रन्थकार सर्वप्रथम हिंसानुबन्धी-रौद्रध्यान का निरूपण करते हुए कहते हैं कि निर्दयी अन्तःकरण वाला व्यक्ति जब प्राणियों के वध, बन्धन, दहन, अंकन और मारने आदि का प्रणिधान (दृढ़ अध्यवसाय) करता है, अर्थात् उपर्युक्त कार्यों को अभी तक किया नहीं, फिर भी उन कार्यों को करने की जो दृढ़ विचारधारा होती है, वह हिंसानुबन्धी नामक प्रथम रौद्रध्यान है। इसका विपाक निम्नकोटि का अथवा अधम होता है, उसके फलस्वरूप नरकादि अधमगति मिलती है। इसके लक्षण इस प्रकार हैंवध - चाबुक आदि से प्रताड़ित करना। वेधन - कील आदि के माध्यम से नासिका आदि को वेधना। बन्धन - रस्सी आदि से बांधकर रखना। दहन - अग्नि आदि से जलाना।
99 ध्यानशतक, गाथा- 19-22.
99 सत्तवह
...................... ...बिवागं।। - ध्यानशतक, गाथा- 19.
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