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हैं कि इस दोष वाला रौद्रध्यानी चमड़ी उधेड़ने, आंखें निकालने आदि हिंसात्मक कार्यों में बार-बार प्रवृत्त होता है। 4. आमरण-दोष – रौद्रध्यान से युक्त जीव की हिंसा, झूठ आदि पापों के सेवन में चित्त की प्रवृत्ति लगी रहती है, अतः वह इन्हें आजीवन कायम रखना चाहता है. यह आमरण-दोष है। दूसरे शब्दों में, जिसमें मरणान्त तक हिंसादि करने का अनुताप नहीं होता है, वह रौद्रध्यानी आमरण-दोष से युक्त होता है।
स्थानांगसूत्र", भगवतीसूत्र तथा औपपातिकसूत्र के अन्तर्गत भी उपर्युक्त चारों दोषों का वर्णन है। इन ग्रन्थों के अनुसार
1. हिंसादि किसी एक पाप में सतत प्रवृत्ति करना उत्सन्न-दोष है। । 2. हिंसादि सभी पापों में सदैव संलग्न रहना बहुल-दोष है। 3. मिथ्यादृष्टिकोण के कारण हिंसादि अधार्मिक कार्यों को धर्म मानना ही
अज्ञान-दोष है। 4. मरणकाल तक भी हिंसादि करने का अनुताप न होना आमरणांत-दोष है।
ऐसा व्यक्ति कठोरता, निष्ठुरता, क्रूरतापूर्ण आचरण करता है। हिंसा की प्रवृत्ति ऐसी भयानक होती है कि जिसे करते समय व्यक्ति के भीतर अत्यन्त क्रूरतम भाव उत्पन्न होते हैं। करुणा, कोमलता, दया के भावों का सर्वथा अभाव हो जाता है। जो व्यक्ति निरंतर ऐसी हिंसक-प्रवृत्तियों में संलग्न रहता है, उस व्यक्ति को अतिरौद्र स्वभाव वाला व्यक्ति कहा जाता है।
अध्यात्मसार में कहा है कि हिंसादि की प्रवृत्ति में उत्सन्नदोष, बहुलदोष, आमरणदोष, पाप करके हर्ष से अहंकार करना, निर्दयता, पश्चातापरहितता, दूसरों के दुःख में प्रसन्नता- ये रौद्रध्यान के लिंग हैं। धीर व्यक्ति को इनका त्याग करना चाहिए।
87 रूद्दस्सणं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णता, तं जहा-ओसण्णदोसे, बहुदोसे, अण्णाणदोसे,
आमरणंतदोसो। - स्थानांगसूत्र, चतुर्थ स्थान, उद्देशक- 1, सूत्र- 64, पृ. 223. 88 भगवतीसूत्र- 803. 89 औपपातिकसूत्र- 20. 90 उत्सन्नबहुदोषत्वं, नानारणदोषता। हिंसादिषु प्रवृत्तिश्च, कृत्वाचं स्मयमानता।। निर्दयत्वाऽननुशयो, बहुमानः परापदि। लिङ्गान्यत्रेत्यदो धीरे-स्त्याज्यं नरकदुःखदम्।।
- अध्यात्मसार- 16/15-16. 91 हिंसोपकरणादानं, क्रूरसत्त्वेष्वनुग्रहम्। निस्त्रिंशतादिलिङ्गानि, रौद्रे बाह्यानि देहिनः ।।
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