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बोलना, असत्य बोलना, जीवघात का आदेश आदि चिन्तन रौद्रध्यान के अन्तर्गत ही आते
हैं।
जिनभद्रगणि
क्षमाश्रमण द्वारा विरचित
रौद्रध्यान के लक्षण (दोष) - ध्यानाध्ययन (ध्यानशतक) में आर्त्तध्यान के वर्णन के पश्चात् रौद्रध्यान के स्वरूप, दोष, लक्षण, पहचान आदि का निवारण करते हुए कहा गया है कि रौद्रध्यानी जीव सतत हिंसादि पापों में प्रवर्त्तमान रहता है, अतः उसके निम्नांकित चार दोष देखे जा सकते
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1. उत्सन्नदोष
2. बहुलदोष
3. नानाविधदोष
4. आमरणदोष
1. उत्सन्न - दोष जो किसी भी एक में अत्यन्त आसक्ति से प्रवृत्त होकर अथवा कामभोग, विषय-वासना, कामना, राग-द्वेष आदि दोषों में डूबा रहता है और अन्य को प्रसन्न देखकर जिसे स्वयं को प्रसन्नता नहीं होती है, जो दूसरों को सुखी देखकर ईर्ष्या करता है, अथवा जिसे अन्य के आनन्द में आनन्दित होना पसन्द नहीं है, वह रौद्रध्यानी है । हिंसादि चार प्रकारो में से किसी एक में रचा-पचा रहना ही रौद्रध्यान का दोष है। दूसरे शब्दों में, रौद्रध्यान के हिंसादि चार प्रकारों में से किसी एक में बहुलतया प्रवृत्त होना ही उत्सन्न-दोष है ।
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2. बहुल-दोष - जिसमें हिंसा, झूठ, चोरी आदि दोषों की बहुलता रहती है, वह बहुल- दोष है। दूसरे शब्दों में, रौद्रध्यान के सभी प्रकारों में प्रवृत्त होना ही बहुल-दोष है ।
3. नानाविध - दोष रौद्रध्यान में रत जीव हिंसा, झूठ आदि अनेक क्रूर एवं दुष्ट अध्यवसायों तथा प्रवृत्तियों को सुखप्राप्ति का मार्ग मानता है। वह भयंकर अज्ञानी होता है, अतः वह नानाविध दोषों से युक्त होता है, या फिर इसे इस प्रकार भी समझ सकते
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लिंगाई तस्स उस्सण्ण - बहुल - नाणाविहाऽऽमरणदोसा ।
सिं चिय हिंसाइसु बाहिरकरणोवउत्तस्स ।।
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ध्यानशतक, गाथा- 26.
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