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________________ 114 अध्यात्ममतपरीक्षावृत्ति' इत्यादि ग्रन्थों में भी आर्तध्यान के चारों प्रकारों का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया गया है। ध्यानशतक में आर्तध्यान को संसार का कारण बताते हुए कहा गया है कि राग-द्वेष और मोह- ये संसारवर्द्धन के मुख्य कारण हैं। ये तीनों आर्तध्यान में विद्यमान हैं, अतः आर्त्तध्यान संसाररूपी वृक्ष का बीज है।2 इच्छाओं, कामनाओं, वासनाओं, आकांक्षाओं, अपेक्षाओं तथा अभिलाषाओं की उत्पत्ति या पूर्ति से होने वाला सुख, सुख नहीं, मात्र सुखाभास है। ऐसे पौद्गलिक-सुखों अर्थात् भौतिक सुख-सामग्री को पाने के लिए चिन्तन करना, आतुर होना- यही आर्त्तध्यान का चौथा प्रकार है। इस प्रकार, केवल अपने ही सुख-दुःख की हर पल, हर क्षण चिन्ता करते रहना अथवा विषय-सुखों के प्रति प्रगाढ़ राग एवं दुःखों के प्रति तीव्र द्वेष करना आर्त्तध्यान है। संक्षेप में, इतना ही समझना है कि जिसमें आत्मरति में हानि और पौद्गलिक-आसक्ति में वृद्धि हो- ऐसे कारणों एवं तज्जनित कार्यों में उत्कण्ठा सहित डूबा रहना आर्तध्यान है। 69 आर्त्त चतुर्धा। अमनोज्ञविषयसंप्रयोगे सति ......... भवमार्त्तमिति। - प्रशमरतिवृत्तौ- 20. . 70 प्रिययोगा-ऽप्रिययोगा ........... बन्धनम ||11|| - अमितगति श्रावकाचारे. परि.- 15. 11 अध्यात्ममत परीक्षावृत्तौ, 85. रागो दोसो मोहो य जेण संसारहेयवो भणिया। अट्टमि य ते तिण्णि वि तो तं संसारतरूबीयं ।। – ध्यानशतक, गाथा- 13. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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