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________________ 112 स्थानांगसूत्र में कहा गया है कि कामभोगों का संयोग होने पर उनका संयोग बना रहे- ऐसा बार-बार चिन्तन करना प्रीतिकारक नामक तीसरा आर्तध्यान है। ___तत्त्वार्थसूत्र में कहा है- भोगों की लालसा की उत्कण्ठा के कारण अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करने के तीव्र संकल्प को निदान नामक चौथा आर्त्तध्यान कहा गया है। निदान शब्द 'नि' उपसर्गपूर्वक 'दा' धातु का ल्युट् का रूप है। निदान- परिणामी चित्तवृत्तियों द्वारा एकान्तिक, आत्यान्तिक, पीडारहित आत्मिक-सुख का नाश होता है। ___ तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति में आचार्य सिद्धसेनगणि ने कहा है कि दीर्घकाल की उग्र तपस्या के द्वारा अथवा कर्मक्षय में समर्थ ऐसे तप के द्वारा देवों एवं मनुष्य के विनश्वर सुख, ऐश्वर्य, सौभाग्य आदि की प्राप्ति के लिए किया हुआ प्रणिधान या चिन्तन निदान कहलाता है।56 ज्ञानार्णव' में लिखा है कि धरणेन्द्र, चक्रवर्ती आदि द्वारा भोगने योग्य भोग, त्रैलोक्यविजयी सौन्दर्य, साम्राज्यरूपी लक्ष्मी, शत्रु-समूह से रहित निष्कण्टक राज्य, देवांगनाओं के नृत्य की लीला को जीतने वाली युवा स्त्रियां तथा अन्य भी सुख-सामग्री मुझे किस प्रकार से प्राप्त होगी ? मैं इनको किसी भी प्रकार से प्राप्त करूं ? इत्यादि रूप मनुष्य की चिन्ता को श्रेष्ठ गणधरों ने भोगार्त्त-ध्यान कहा है। वह जन्म-जन्मान्तर में संसार–परिभ्रमण का कारण है। पवित्र संयम एवं तप आदि अनुष्ठानों के समूह से जो जिनेन्द्र अथवा देवों के पद की अभिलाषा की जाती है, या विविध प्रकार के विचारों के __ अहमं नियाणचिंतणमण्णाणाणुगयमच्चंतं ।। - ध्यानशतक, गाथा- 9. 53 (क) परिजुसितकामभोगसंपओग संपउत्ते तस्स अविप्पओगसतिसमण्णागते यावि भवति।। - स्थानांगसूत्र, चतुर्थ स्थान, उद्देशक- 1, सूत्र- 61, पृ. 222. (ख) भगवतीसूत्र- 803. (ग) औपपातिकसूत्र- 20. 54 निंदानं च। - तत्त्वार्थसूत्र- 9/34. 55 धातु नम्बर- 1070. 56 कामोपहतचित्तानां इत्यादि। इच्छाविशेषः शब्दाधुपयोगविषयः । अथवा मदनः कामश्चिरमुग्रतपोनिष्ठाय कर्मक्षपणक्षमदीर्घदर्शितया खल्वस्य विनश्वरस्यावितृप्तिकारिणः सुरमनुजसुखैश्वर्यसौभाग्यादैः कृते तत्रैव कृतदृढ़प्रणिधाना बह्यविनश्वरं सतत तृप्ति-कारणमुक्तिसुखमनुपममवमन्य, प्रवर्तमानाः, कामोपहतचेतसः पुनर्भवविषयगृद्धा.................निदानमार्तध्यानं भवतीति। - तत्त्वार्थसिद्धवृत्तौ. 57 भोगा भोगीन्द्रसेव्यास्त्रिभुवनजयिनीरूपसाम्राज्यलक्ष्मी, राज्यं क्षीणारिचक्रं विजितसुखधूलास्यलीलायुवत्यः । अन्यच्चानन्दभूतं कथमिह भवतीत्यादि चिंतासुभाजाम् यत्तद्भोगार्त्तमुक्तंपरमगुणधरैर्जन्मसन्तानमूलं ।। पुण्यानुष्ठानजातैरभिलषति पदं यज्जिनेन्द्रामरणाम्, यद्वा तैरेव वांछत्यहितकुलकुजच्छेदमत्यन्तकोपात् पूजा-सत्कार-लाभप्रभृतिकमथवा याचतेयद्विकल्पैः, स्यादात तन्निदानप्रभवमिह नृणां दुःखदावोग्रधाम ।। इष्टभोगादि सिद्ध्यर्थ, रिपुघातार्थमेव वा। यन्निदानं मनुष्याणां, स्यादात तत्त्तुरीयकम्।। - ज्ञानार्णवे- 25/34, 35, 36. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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