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निर्विकल्प शुक्लध्यान की ओर जाने के लिए सेतु या मार्ग का काम करते हैं। शुक्लध्यान तो आत्मा की निर्विकल्प विशुद्ध अवस्था है।118 वह आत्म-रमण की स्थिति है, विकल्पों | से मुक्ति है।
शुक्लध्यान के अन्तिम दो चरण आत्म-रमण की स्थिति हैं और इसीलिए वे मुक्ति का चरम उपाय माने गए हैं। शुक्लध्यान के बिना कोई भी व्यक्ति मुक्त नहीं हो सकता है। शुक्लध्यान के अन्तिम दो चरण साधना की वह चरम अवस्था है, जो हमें सीधे मुक्ति से जुड़ाती है। वह चित्त की ऐसी विशुद्ध स्थिति है, जिसमें 'पर' के सभी विकल्प समाप्त हो जाते हैं।
___ दूसरे शब्दों में कहें, तो शुक्लध्यान निर्विकल्प की स्थिति है और इसीलिए वह मोक्ष का सीधा कारण है। इस प्रकार, तप, त्याग, संयम-साधना अर्थात् निवृत्तिमार्ग को जैन-परम्परा में धर्मध्यान कहा गया है119 और शुक्लध्यान आत्म-विशुद्धि की अवस्था है, अतः इन दोनों का स्थान एवं महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। धर्मध्यान शुभ है और शुक्लध्यान शुद्ध है। शुभ से शुद्ध की ओर प्रयाण करना- यही साधना है, इसलिए हम कह सकते हैं कि साधना की दृष्टि से धर्मध्यान और शुक्लध्यान- दोनों का ही महत्त्वपूर्ण स्थान है।
धर्मध्यान मार्ग है, तो शुक्लध्यान गन्तव्य है। जिस प्रकार मार्ग के बिना गन्तव्य तक पहुंचना सम्भव नहीं है, उसी प्रकार धर्मध्यान के बिना शुक्लध्यान असम्भव है।
धर्मध्यान अशुभ से निवृत्ति कराता है और शुक्लध्यान शुद्ध की प्राप्ति कराता है। अशुभ की निवृत्ति के बिना शुद्ध की प्राप्ति सम्भव नहीं है, अतः साधना के क्षेत्र में व्यक्ति धर्मध्यान के माध्यम से शुक्लध्यान, अर्थात् आत्मा की शुद्ध अवस्था या मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।
इसी दृष्टि से, जैनसाधना-पद्धति में धर्मध्यान और शुक्लध्यान- इन दोनों का स्थान और महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। आगे हम चारों ध्यानों के स्वरूप एवं लक्षणों पर विचार करेंगे।
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110 जैनसाधना-पद्धति में ध्यान, डॉ सागरमल जैन, पृ. 30. 110 धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमोतवो। - दशवैकालिक, अध्ययन- 1, गाथा 1.
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