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________________ रौद्रध्यान की वृत्ति कही जाती है। शास्त्रों के अनुसार आदेशों का परिपालन करना धर्मध्यान है और जिसको निमित्त से अष्ट प्रकार के कर्ममलों की विशुद्धि होती है, वह ही शुक्लध्यान कहलाता है। स्थानांगसूत्र की टीका तथा समवायांगसूत्र के अनुसार, अन्तर्मुहूर्त्तकाल तक चित्त की एकाग्रता अथवा योगनिरोध को ध्यान कहते हैं। यह एकाग्रता जब इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग आदि के होने पर उससे छुटकारा पाने के अर्थ में होती है, तब उसे आर्तध्यान कहते हैं और जब यही एकाग्रता हिंसादि पाप-प्रवृत्तियों में स्थित हो जाती है, तब वह रौद्रध्यानरूप बन जाती है। जब वह एकाग्रता दान, दया, परोपकार, जिनाज्ञा के पालन में प्रवृत्त हो जाती है, तब वह धर्मध्यान कहलाती है और जब वही एकाग्रता सर्व शुभ-अशुभ भावों से निवृत्त होकर एकमात्र शुद्ध चैतन्यस्वरूप अथवा निर्विकल्प स्थिति में स्थित हो जाती है, तब उसे शुक्लध्यान कहते हैं।80 आचार्य जिनदासगणि महत्तर ने आवश्यकचूर्णि के प्रतिक्रमणाध्ययन के अन्तर्गत मात्र एक ही गाथा में आर्त्त आदि चारों ही ध्यानों के स्वरूप का बहुत ही सारगर्भित वर्णन किया है। गाथा की यह विशेषता है कि वह गाथा संस्कृत और प्राकृत-भाषा में सम्मिश्रित है और बहुत ही सुन्दर है हिंसाणुरंजितं रौद्र, अटुं कामाणुरंजितं। धम्माणुरंजितं धम्म, शुक्लं झाणं निरंजणं ।। 19 स्थानांगटीका, अध्याय 4, प्रथम उद्देशक की टीका, प्रस्तुत संदर्भ अभिधान राजेन्द्रकोश, भाग ___4, पृ. 1661. ® अन्तर्मुहूर्त यावच्चित्तस्यैकाग्रता योगनिरोधश्च ध्यानम् । तत्रार्त मनोज्ञामनोज्ञेषु वस्तुषु वियोगसंयोगादिनिबन्धनचित्तविक्लवलक्षणम्, रौद्रं हिंसानृतचौर्यधनसंरक्षणाभिसन्धानलक्षणम्, धर्म्यमाज्ञादिपदार्थस्वरूपपर्यालोचनैकाग्रता, शुक्लं पूर्वगतश्रुतालम्बनेन मनसोऽत्यन्तस्थिरता योगनिरोधश्चेति ।। 4 ।। - समवायांग - प्रस्तुत गद्य सन्मार्ग प्रकाशन 'ध्यानशतक' पुस्तक से उद्धृत, पृ. 17. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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