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________________ अप्रशस्त ध्यान साधना के लिए अनुपयोगी तथा व्यवधानात्मक हैं, क्योंकि वे संसारवृद्धि का कारण हैं, जबकि प्रशस्त ध्यान मुक्ति के हेतु हैं। यहां उनका जो उल्लेख हुआ है, वह इस बात को लक्ष्य में रखकर हुआ है कि आर्त और रौद्र-ध्यान अशुभ हैं, रागद्वेषजनित हैं तथा बन्धन के हेतु हैं, अतः उनका परित्याग करके साधक को धर्मध्यान और शुक्लध्यान की साधना करना चाहिए, क्योंकि शुभ के माध्यम से शुद्ध दशा को प्राप्त कर साधक अपने निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।" यहां दो प्रशस्त ध्यानों के साथ-साथ दो अप्रशस्त ध्यानों को समझना भी जरूरी है। ध्यानदीपिका में कहा गया है- राग-द्वेष छोड़कर समतावान् मुनि जिस वस्तु का चिन्तन करे, अर्थात् ध्यान करे, वह ध्यान अच्छा (शुभ) माना जाता है, किन्तु आर्त और रौद्र-ध्यान दुःखयुक्त हैं, जन्म-मरण का कारण हैं, इसलिए अशुभ माने जाते हैं। यहां एक बात और समझ सकते हैं कि विश्व में तीन प्रकार के पदार्थ होते हैंहेय 2. ज्ञेय और 3. उपादेय। जगत् के समग्र जानने योग्य पदार्थ ज्ञेय हैं। जो पदार्थ आत्मा को विकारग्रस्त करें, अर्थात् कषायवृद्धि का कारण बनें, वे छोड़ने योग्य पदार्थ हेय हैं, जबकि आत्मकल्याण या आत्मोत्कर्ष में सहयोगी पदार्थ उपादेय या ग्रहण करने योग्य माने जाते साधक ज्ञेय को जानकर, उपादेय को ग्रहण कर हेय का परित्याग करे। स्थानांगसूत्र की टीका में इन चारों ध्यानों की परिभाषा इस प्रकार है आर्तध्यान को परिभाषित करते हुए लिखा है कि आर्तध्यान दुःखपूर्वक है, अथवा दुःख के निमित्त से होता है, क्योंकि भय से पीड़ित व्यक्ति आर्त्तध्यान करता है, जबकि रौद्रध्यान दुष्ट अध्यवसाय है। जिस वृत्ति में हिंसा और अत्यधिक क्रोध होता है, वह 76 (क) आर्त रौद्रं च धर्म च शुक्लं चेति चतुर्विधम् । तत् स्याद् भेदाविह द्वौ द्वौ कारण भवमोक्षयोः ।। – ध्यानाधिकार, अध्यात्मसार, श्लोक- 3. (ख) प्रशस्तमप्रशस्तं च ध्यान संस्मर्यते द्विधा। ___ शुभाशुभाभिसंधानात् प्रत्येक तद्वय द्विधा ।। - आदिपुराण, पर्व- 21, श्लोक 27. (ग) आर्तरौद्रपरित्यागाद्, धर्मशुक्लसमाश्रयात् । जीवः प्राप्नोति निर्वाण-मनन्तसुखमच्युतम् ।। " अट्ठ रूद्धाणि वज्जिता, झाएज्जा सुसमाहिए। धम्मसुक्काइं झाणाई, झाणं तं तु बुहावए ।। - उत्तराध्ययनसूत्र- 30/35. रागद्वेषौ शमी मुक्त्वा यदयद्वस्तु विचिंतयेत्। तत्प्रशस्तं मतं ध्यानं रौद्राध्यं चाप्रशस्तकम्।। - ध्यानदीपिका, प्रकरण 4, श्लोक 67. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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