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सात नयों को किस दर्शन में किस रूप से घटित किया जा सकता है, इसकी विस्तृत चर्चा हमें आचार्य हरिभद्र के ग्रन्थ शास्त्रवार्ता-समुच्चय में मिल जाती है। दूसरी यह बात भी महत्वपूर्ण है कि आचार्य हरिभद्र ने विभिन्न दर्शनों का समावेश जैनदर्शन में किस-किस नय की अपेक्षा से किया है ? यह भी बताने का प्रयास किया है। इसी प्रकार नयों की यह चर्चा उनके न्याय–सम्बन्धी ग्रन्थों में, विशेष रूप से अनेकान्तवादप्रवेश, अनेकान्तजयपताका आदि में भी मिलती है। चूंकि मेरा शोध-प्रबन्ध पंचाशक-प्रकरण पर आधारित है और पंचाशक-प्रकरण में प्रमाण, नय और निक्षेप की चर्चा विशेष रूप से नहीं मिलती है, अतः मैं इस विवेचन को यहीं विराम देती हूँ।
सम्यक्चारित्र 'चारित्र' शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है -
चरतिचर्यतेदनेन चरण मात्रं वा चारित्रम्।'
अर्थात्, जो आचरण करता है, जिसके द्वारा आचरण किया जाता है, या आचरण करना मात्र, चारित्र है।
आत्मा से परमात्मा बनने के लिए सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान जितना आवश्यक है, उतना ही सम्यक्चारित्र आवश्यक है। उत्तराध्ययन के अनुसार 'चररित्तकरं चारितं', अर्थात् जिससे कर्म का चय होता है, अर्थात् कर्म रिक्त होते हैं, वह चारित्र है।'
समयसुन्दर के अनुसार - 'न केवल ज्ञानमेव दर्शनसहितं मोक्षकरं किन्तु चारित्रमपि दर्शन सहितं एवं मोक्षसाधकं भवति', अर्थात्, न केवल ज्ञानसहित दर्शन मोक्षसाधक होता है, अपितु सम्यक्त्व उपलब्ध होने पर भी क्रिया-रूप चारित्र की प्रवृत्ति ही सफल होती है। चारित्र सम्यक्त्व (दर्शन) और ज्ञान-दोनों का अनुगामी हुआ करता
1 उत्तराध्ययन - 28/33 2 सप्तस्मरणवृत्ति - म. समयसुन्दर जी - चतुर्थ स्मरण - पृ. 3 सप्तस्मरणवृत्ति – म. समयसुन्दर जी - चतुर्थ स्मरण – पृ. * सप्तस्मरणवृत्ति – म. समयसुन्दर जी - चतुर्थ स्मरण – पृ. 32
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