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मिथ्यात्वदृष्टि में सम्यक् या मिथ्या होने पर निर्भर है। श्रुतज्ञान के विषय में आचार्य हरिभद्र ने आगमिक-परम्परा का अनुसरण करते हुए नन्दीवृत्ति में स्पष्ट रूप से कहा है कि सम्यग्दृष्टि जीव के लिए मिथ्याश्रुत भी सम्यक् श्रुत हो जाता है और मिथ्यादृष्टि जीव के लिए सम्यक् श्रुत भी मिथ्याश्रुत बन जाता है। इस प्रकार आगमिक - परम्परा का अनुसरण करते हुए हरिभद्र स्पष्ट रूप से यह स्वीकार करते हैं कि श्रुतज्ञान का सम्यक्त्व और मिथ्यात्व सम्यग्दृष्टि और सम्यग्दर्शन पर आधारित है। जहाँ तक अवधिज्ञान का प्रश्न है, तो आगमों में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि जीव में यह अवधिज्ञान विभंगज्ञान के रूप में होता है और इसे मिथ्याज्ञान भी माना जाता है। आचार्य हरिभद्र नन्दीवृत्ति में इसी मत के पक्षधर हैं। जहाँ तक मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान का प्रश्न है, तो ये दोनों ज्ञान सम्यग्दृष्टि जीव को ही होता है। ये ज्ञान स्वरूप से ही सम्यग्ज्ञान होते हैं।
प्रमाण
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जैनर्दान में सम्यग्ज्ञान को ही प्रमाण कहा गया है। आचार्य हेमचन्द्र ने स्पष्ट रूप से इस मत का प्रतिपादन किया है । यद्यपि इसके पूर्व जैन - आचार्य प्रमाण की परिभाषा इस रूप में देते हैं- जो ज्ञान स्व और पर का प्रकाशक है तथा अविसंवादी हैवादविवर्जित वह ज्ञान प्रमाण है। जैनदर्शन में प्रमाण और सम्यग्ज्ञान एक-दूसरे के पर्यायवाची ही रहे हैं और इसलिए लगभग 12वीं शताब्दी से जैन - आचार्यों ने प्रमाण की परिभाषा सम्यग्ज्ञान के रूप में ही दी है। संक्षेप में कहें, तो जो ज्ञान अपना और अपने विषय का सम्यक् रूप से प्रतिपादन करता है, वह ज्ञान ही प्रमाण है और उसे ही सम्यग्ज्ञान कहा जाता है। आचार्य हरिभद्र ने अपनी अनुयोगद्वारवृत्ति में प्रमाण की चर्चा की है। यद्यपि यह ज्ञातव्य है कि प्रमाण की इस चर्चा में सर्वप्रथम आचार्य हरिभद्र विविध अंगुल के स्वरूपों का विवेचन तथा पव्योपम आदि समय में विभागों का विवेचन करते हैं, किन्तु इसके पश्चात् उन्होनें भावप्रमाण के रूप में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम आदि की भी चर्चा की है। आचार्य हरिभद्र के प्रमाण की इस चर्चा भी हम आगमिक - परम्परा का ही अनुसरण पाते हैं, क्योंकि जहाँ परवर्ती जैन आचार्यों ने प्रत्यक्ष,
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