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________________ सम्यग्दर्शन की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि वह सम्यग्दृष्टि साधक को पाप से मुक्त रखता है। भगवान् महावीर के द्वादशांगी के प्रथम अंग आचारांग में यही कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि जीव पाप नहीं करता है। व्यक्ति के व्यवहार से यह अनुभव हो जाता है कि यह सम्यग्दृष्टि है, या नहीं ? जो जगत् के सर्वजीवों को अपनी आत्मा की तरह मानता है। जो कार्य स्वयं पसन्द नहीं है, वह कार्य दूसरों के लिए भी नहीं करना चाहता, उसकी दृष्टि यथार्थ होती है, उसमें पक्षपात की प्रवृत्ति नहीं होती है, वह संसार में रहता तो है, परन्तु उसके भीतर संसार नहीं रहता है, अर्थात् वह संसार के भौतिक साधनों के प्रति आसक्त नहीं होता है, भोगों से निर्लिप्त होता है, संसार के सुखों-दुःखों के बीच रहते हुए भी उनसे उदासीन रहता है, तीव्र कषायों पर विजय प्राप्त कर लेता है, आवेश के प्रसंग में अपने पर नियन्त्रण रखता है, संसार के सुख-दुःखों को ज्ञाता दृष्टाभाव से देखता है, उनसे प्रभावित भी नहीं होता है और उनके कारण सुखी-दुःखी भी नहीं होता है, प्रतिपल अपने विवेक को जागरूक रखता है। जड़-चेतन के भेद को भली-भांति समझता है, अपमान और सन्यास में सम होता है। संसार की क्षणिक को जानकर आत्म-चिंतन में रत रहता है, सदा सदाचारी रहता है। सम्यग्ज्ञान ज्ञान शब्द की व्युत्पत्ति - 'जानाति ज्ञायते अनेन ज्ञप्तिमात्रं वा ज्ञानम्।" अर्थात् जो जानता है, जिसके द्वारा जाना जाता है, या जानना मात्र- यह ज्ञान शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है। गणि समयसुन्दर के अनुसार “यस्ततत्त्वागम स ज्ञानम् । अर्थात् जिससे तत्त्व का अवगमन हो, वही ज्ञान है। सम्या 1सवार्थसिद्धि - आ. पूज्यपाद - 1/1/6 पृ. -5 विशेषशतकम् - समयसुन्दर का विचारपक्ष - मुनिचन्द्रप्रभासागर - पृ. -461 74 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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