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आंशिक रूप से उपशम अवस्था को प्राप्त होते हैं, उसका नाम क्षायोपशमिक-सम्यक्त्व
है।
(2) औपशमिक-सम्यक्व- जो जीव उपशम श्रेणी पर आरूढ़ होता है, उसे औपशमिक-सम्यक्त्व होता है। जिसने मिथ्यात्व के दलिकों के मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यक्त्व-मिथ्यात्वरूप से तीन पुंज नहीं किए हैं, तथा मिथ्यात्व का क्षय नहीं किया है, तो वह औपशमिक-सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। (3) क्षायिक-सम्यक्व- दलिकों के क्षय हो जाने पर क्षायिक-सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है।
मिथ्यात्व के तीन प्रकार के भेदों का प्रतिपादन करके आचार्य हरिभद्र ने अन्य दृष्टिकोण से भी सम्यक्त्व के भेद कहे हैं जो निम्नलिखित है(1) कारक, (2) रोचक, (3) दीपक आदि।
सम्यग्दर्शन का स्वरूप जैन मनीषियों ने सम्यग्दर्शन के स्वरूप के सम्बन्ध में गहन चिन्तनपूर्वक विशद् विवेचन किया है, साथ ही दर्शन को सम्यक् बनाने के लिए अधिक बल दिया है, क्योंकि सम्यग्दर्शन ही मोक्ष का प्रदायक एवं मूल है। कहा गया है कि 'धर्मदर्शनमूलक है।' चारित्रभ्रष्ट व्यक्ति कालक्रम में पुनः साधना करके मुक्ति को प्राप्त कर लेगा, परन्तु दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति किसी भी अवस्था में मुक्ति का वरण नहीं कर सकता है, क्योंकि चरित्र से भ्रष्ट व्यक्ति सम्यग्दर्शन के आधार पर पुनः सम्यक्चारित्र में स्थित होकर मुक्ति प्राप्त कर सकता है, परन्तु दर्शनभ्रष्ट व्यक्ति किस आधार पर पुनः सम्यकदर्शन को प्राप्त करेगा? अतः दर्शनभ्रष्ट होने पर पुनः धर्ममार्ग में आने की संभावनाएँ धूमिल हो जाती हैं। सम्यग्दर्शन के अभाव में व्यक्ति की क्या स्थिति होती है, इसका सटीक वर्णन करते हुए
पृ 32
सावयपण्णति - आचार्य हरिभद्रसूरि - श्लोक - 44 2 सावयपण्णति - आचार्य हरिभद्रसूरि - श्लोक - 45 ₹ 33 3 सावयपण्णति - आचार्य हरिभद्रसूरि - श्लोक - 48 पृ 35 'कुन्दकुन्दाचार्य - दंसण मुलओ धम्मो - दर्शनपाहुड – श्लोक 2 3
कुन्दकुन्दाचार्य- दंसण भट्टो-भट्टो - दर्शनपाहुड - श्लोक 3 पृ7 'कुन्दकुन्दाचार्य - दंसण मुक्को या होह चल सवओ - भाव पाहुड
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