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________________ हरिभद्र का मानना है कि सत्यान्वेषी एवं साधना के राही को पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सभी दर्शनों की समीक्षा करना चाहिए और उसमें जो तर्कसंगत लगे, उसे अपना लेना चाहिए। हरिभद्र बुद्धिवाद से उत्पन्न होने वाली बुराइयों के प्रति भी सजग रहे हैं। वे निर्भीक होकर अपने विचारों को स्पष्ट करते हैं कि युक्ति और तर्क का उपयोग केवल अपनी मान्यताओं को महत्व देने के लिए ही नहीं करना चाहिए, अपितु सत्य के अन्वेषण के लिए ही करना चाहिए। "आग्रहीवत निनीषती युक्ति तत्र यत्र मतिर्निविष्टा। निष्पक्षपातस्य त यक्तिर्यत्र तत्र तस्य मति रेति निवेशम।।" दुराग्रही व्यक्ति अपनी युक्ति का उपयोग वही करता है, जहाँ अपनी बात सिद्ध करना चाहता हो, अथवा किसी के मत को खण्डित करना चाहता हो, जबकि अनाग्रही या निष्पक्ष व्यक्ति की यह सोच होती है कि जो युक्तिसंगत है, उसे स्वीकार कर लेना चाहिए अथवा तर्कसंगत से उसकी व्याख्या कर देना चाहिए, परन्तु तर्क व युक्ति का प्रयोग किसी के पृथक्करण के लिए नहीं करना चाहिए। आचार्य हरिभद्र इस सम्बन्ध में सिद्धहस्त थे। उन्होंने युक्ति का प्रयोग किसी को खण्डित करने में नहीं किया, किसी को पृथक्-भूत करने के लिए नहीं किया, अपितु सत्य के अन्वेषण के लिए ही किया, अतः हम उनके के लिए यह बात निश्चित रूप से कह सकते हैं। डॉ. सागरमल जैन के शब्दों में- “हरिभद्र शुष्क तार्किक न होकर सत्यनिष्ठ तार्किक है।" 7. कर्मकाण्डों की तार्किक समीक्षा- आचार्य हरिभद्र ने कपोल कल्पित विचारों को कभी महत्व नहीं दिया। वे इसे एक बुराई ही मानते थे। उस युग में धर्म के अन्दर कर्मकाण्डों का प्रवेश हो गया था। उन्होंने इन कर्मकाण्डों को निषेध करने के लिए किसी भी प्रकार की कोई टिप्पणी नहीं की है, अपितु धर्म साधना में स्थान लिए हुए इन कर्मकाण्डों को सदाचार, चारित्रिक-निर्मलता, आध्यात्मिक-पवित्रता के साथ जोड़ने का अवश्य प्रयास किया है। आचार्य हरिभद्र सदैव अन्धश्रद्धा से मुक्त होने का आग्रह रखते थे। उनके समस्त साहित्य का अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि वे साध्वाचार एवं व्यवहार में भी सदाचार पर बल देते थे। जैन-परम्परा में साधना के क्षेत्र में साध्य को प्राप्त करने के लिए साधना के तीन अंगों को स्वीकार किया जाता है- दर्शन (श्रद्धा), ज्ञान (प्रज्ञा), चारित्र (शील)। ___आचार्य हरिभद्र ने भी धर्म-साधना में इन तीन सूत्रों को स्वीकार किया है, परन्तु उनका यह मानना है कि श्रद्धा को अंधश्रद्धा नहीं बनाना चाहिए और ज्ञान को कुतर्क का दर्जा नहीं देना चाहिए न चारित्र को बाह्य कर्मकाण्डों तक सीमित रखना चाहिए। 59 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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