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________________ अनुभूतिविषयक रहा, विवाद का विषय नहीं। जब बादरायण, जैमिनी आदि दिग्गज दार्शनिकों ने सूत्र-ग्रन्थों की रचना की, तो दर्शन में समीक्षा एवं तर्क को स्थान मिला। अपने दर्शन के मत को प्रबल तकों से पुष्ट कर अन्य दर्शनों के मतों का खण्डन करने की ही प्रवृत्ति विकसित हुई, परिणाम यह भी हुआ कि खण्डन हेतु अनेकों बार अन्य दशनों की मान्यताओं को भ्रान्त रूप से भी प्रस्तुत किया गया, परन्तु आचार्य हरिभद्र ने ऐसे पक्षपात से परे होकर समन्वयात्मक दृष्टि अपनाते हुए, अन्य दर्शनों का गहन अध्ययन कर उनमें निहित तथ्य को ग्रहण करने का प्रयास किया। किसी भी दर्शन के सत्य को सभी के सामने वही परोस सकता है, जिसकी दृष्टि ईमानदार हो, निष्पक्ष हो, समन्वय की हो। हमें ये सारी विशेषताएँ हरिभद्र में दृष्टिगत होती है और यही कारण है कि आचार्य हरिभद्र ने केवल जैन-ग्रन्थों की ही टीकाएं नहीं लिखी, अपितु जैनेतर ग्रन्थों पर भी टीकाएं रची। यह उनकी समन्वयात्मक-दृष्टि का ही परिचय है। उन्होंने अन्य दर्शनों के जिन महत्वपूर्ण ग्रन्थों पर टीकाएं लिखीं, उनमें दो प्रसिद्ध हैं- 'दिङ्नाग का न्याय-प्रवेश' और 'पतंजलि का योगसूत्र'। इन ग्रन्थों का अध्ययन करने पर उनकी तटस्थ मानसिकता का ज्ञान हो जाता है। यह उनके गम्भीर अध्ययन का ही परिणाम था, क्योंकि गम्भीर अध्ययन के बिना एवं तटस्थता के बिना न तो वे समीक्षा कर सकते, न किसी को समझा सकते और न ही दोनों दर्शनों में समन्वय स्थापित कर सकते। अपने तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर ही उन्होंने नवीन दृष्टिकोण से योगबिन्दु, योगशतक, योगविंशिका, योगदृष्टि-समुच्चय आदि ग्रन्थों की रचना की। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि आचार्य हरिभद्र जैन एवं जैनेतर दर्शनों के गम्भीर अध्येता एवं व्याख्याता थे। आचार्य हरिभद्र ने अपने समय के सभी दर्शनों का गम्भीर अध्ययन कर, निष्पक्ष दृष्टिकोण अपनाते हुए, उन सभी दार्शनिकों के विचारों की व्याख्या प्रस्तुत की। 5. पौराणिक मिथ्या धारणाओं का निर्भीक रूप से खण्डन- आचार्य हरिभद्र उदारशील, समन्वय-साधक दीर्घदृष्टा हैं। यह हमें उनके जीवन के अध्ययन से, उनके द्वारा रचित ग्रन्थों के अध्ययन से एवं उनके द्वारा किए गए अन्य दर्शनों के समीक्षात्मक अध्ययन से ज्ञात हो गया, लेकिन उनकी उदारदृष्टि आदि का अर्थ यह नहीं है कि वे गलत धारणाओं का भी पोषण करे, अन्धविश्वासों को प्रश्रय दें, अथवा मिथ्या मान्यताओं को भी पुष्ट करे। उन्होंने अपनी प्रज्ञा से अन्य परम्पराओं में निहित धार्मिक सत्यों को स्वीकार किया, पर अन्धविश्वासों को कहीं भी आश्रय नहीं दिया। उन्होंने उसका खुलकर खण्डन किया। मिथ्या धारणाओं के खण्डन की दृष्टि से इनकी दो रचनाएँ अन्यन्त महत्वपूर्ण है- 'धुर्ताख्यान' एवं 'द्विजवदन-चपेटिका'। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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