SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लिए ही दिया है, क्योंकि जब पदार्थों का क्षणभंगुर स्वरूप समझ में आ जाए, तब हमारी आसक्ति पदार्थों के प्रति गहरी नहीं हो सकती। इसी प्रकार विज्ञानवाद का उपदेश भी बाह्य-पदार्थों के प्रति लालसा, तृष्णा की भूख को समाप्त करने के लिए ही है। यदि सारे ही पदार्थ मन के विकल्परूप हैं और उनका बाह्यस्वरूप प्रतिभास है, तो उनके प्रति तृष्णा पैदा ही नहीं होगी। इसी प्रकार कुछ साधकों की मनोभूमिका को ध्यान में रखकर संसार की क्षणिकता का बोध कराने के लिए शून्यवाद का उपदेश दिया।' ___हरिभद्र की दृष्टि में बौद्धदर्शन के क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद के सिद्धान्त का मूल ध्येय यही है कि व्यक्ति की जगत् के प्रति जो तृष्णा है, उसका प्रहण हो। हरिभद्र अद्वैतवाद की समीक्षा करते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि सामान्य की दृष्टि से तो अद्वैत की विचारणा भी सत्य है तथा विषमता के निवारण के लिए एवं समभाव की साधना के लिए अद्वैत की भूमिका भी आवश्यक है। अद्वैत विरोधी भावनाओं का निषेध करता है, अर्थात् द्वेषभाव का उपशमन करता है, अतः इसे भी असत्य नहीं कह सकते। इस प्रकार आचार्य हरिभद्र अद्वैत-वेदान्त के ज्ञान के मार्ग को भी समीचीन ही स्वीकार करते हैं। उक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि आचार्य हरिभद्र की दार्शनिक विचारधाराओं की समीक्षा समालोचना के लिए न होकर उन दार्शनिक-परम्पराओं की सत्यता के मूल्यांकन के लिए है। उनकी भावना, किसी की भी धारणाओं को ठेस न पहुँचे, वही हैं। शास्त्रवार्तासमुच्चय में आचार्य हरिभद्र ने स्पष्ट किया है कि उपर्युक्त ग्रन्थ का ध्येय अन्य परम्पराओं के प्रति द्वेष का उपशमन करना व सत्य का बोध कराना है। जैनेतर परम्पराओं का जैनदर्शन से तुलनात्मक अध्ययन ईमानदारी से करते हुए वे आलोचक के रूप में नहीं, अपितु सत्यान्वेषी के रूप में ही परिलक्षित होते हैं। 4. इतर दर्शन का तलस्पर्शी अध्ययन एवं निष्पक्ष व्याख्या- प्रारम्भ में भारतीय साहित्यकारों में तार्किक-दर्शन के क्षेत्र में अध्ययन की प्रवृत्ति अल्प ही थी। उनकी दृष्टि में दर्शन 52 अन्ये त्वमिद घत्येवमेतदास्थानि वृत्तये। क्षणिकं सर्वमेवोति बुद्धनोक्तं न तत्त्वतः।। विज्ञानमात्रमप्येवं बाह्यसंगनिवृत्तये। विनेयान् कांश्चिदाश्रित्य यद्वा तद्देशनाऽर्हतः- शास्त्रवार्ता-समुच्चय- 464, 465 53 अन्य व्याख्यानयन्त्येवं समभावप्रसिद्धये। अद्वैतदेशना शास्त्रे निर्दिष्टा न तु तत्त्वतः।।- शास्त्रवार्ता-समुच्चय- 550 54 ज्ञानयोगादतो मुक्ति रिति सम्यग् व्यवस्थितम्। तन्त्रान्तरानुरोधेन गीतं चेत्थं न दोषकृत्।।-शास्त्रवार्ता-समुच्चय- 579 55 यं श्रुत्वा सर्वशास्त्रेषु प्रायस्तत्त्वविनिश्चयः।। जायते द्वेषशमनः स्वर्गसिद्धि सुखावहः- शास्त्रवार्ता-समुच्चय-2 56 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy