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आत्मशुद्धि आदि संभव है। इस त्याग से ही परस्पर मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और प्रमोद-भाव उत्पन्न होते हैं, अतः जब तक तन में प्राण है, तब तक तप का आश्रय लेते ही रहना चाहिए, क्योंकि तप से ही मोक्ष है। तप का महत्व- तप प्रकाश-रूप है। जिसने तपोमय जीवन जीना सीख लिया, वह संसार के दुःख रूपी जाल से मुक्त हो गया, क्योंकि तपस्वी में किसी भी प्रकार की कामना शेष ही नहीं रहती, किन्तु यहाँ यह जानना आवश्यक है कि तप किस उद्देश्य से किया जा रहा है, क्योंकि तप सकाम भी होता है और निष्काम भी। यदि तप सकाम-भाव से किया जा रहा है, तो उसकी उपलब्धि संसार ही है और यदि निष्काम भाव से किया जा रहा है, तो उसकी उपलब्धि शाश्वत सुख है, आत्मिक-आनन्द है।
वास्तव में, तप जीवन के उत्थान का प्रशस्तपथ है। वैदिक-संस्कृति में भी तप की साधना को सर्वोत्कृष्ट की उपमा से अलंकरित किया गया है। तप को अग्नि कहा गया है। भगवान् महावीर ने इस तप की अग्नि में ही अपने सम्पूर्ण कर्म के काष्ठ को जलाकर भस्म कर दिए थे। यदि आज भी किसी को अपने कर्मकाष्ट को जलाकर भस्म करना हैं, तो उसे तपरूपी अग्नि का ही प्रयोग करना होगा, क्योंकि तप की उष्मा में सर्वोत्कृष्ट आध्यात्मिक-शक्ति है। जो कार्य अन्य माध्यमों से सफल नहीं होते हैं, वे तप के माध्यम से सहज ही सम्पन्न हो जाते हैं। महाराज कृष्ण ने अट्ठम-तप करके ही अपनी बेहोश सेना को होश में ले आए थे। बहन सुन्दरी तप के द्वारा ही भाई भरत से दीक्षा की अनुमति प्राप्त कर सकी थी।
सनतकुमार ने तप के प्रभाव से ही वह शक्ति प्राप्त की थी, जिसके द्वारा अपने शरीर के असाध्य रोग को समाप्त करने के लिए उनका स्वयं का थूक पर्याप्त था। तप के द्वारा ही श्रीपाल का कुष्ठरोग मिटकर उसकी काया कंचनवर्णी बनी थी। तप की उपलब्धियाँ - .
तप से व्यक्ति के मनोरथ पूर्ण होते हैं। तप से वचन-सिद्धि की प्राप्ति होती है। तप से काया द्वारा की गई साधना सफल होती है। तप से सच्चे सुख की प्राप्ति होती है।
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