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________________ से तप करते हुए सोलह दिन में यह तप पूर्ण होता है। इस तप के सम्पूर्ण होने पर ज्ञानपूजापूर्वक सोलह मोदक, फल-फूल आदि आठ द्रव्यों द्वारा जिनेश्वर भगवान् की पूजा करना चाहिए । योगशुद्धि-तप- योग, अर्थात् मन-वचन और काया से एकाकार हो जाना और शुद्धि, अर्थात् स्वच्छता। इस प्रकार, योग-प्रवृत्ति को स्वच्छ करने वाला तप योगशुद्धितप कहलाता है । इस तप की विधि इस प्रकार है प्रथम दिन नींवी, दूसरे दिन आयम्बिल और तीसरे दिन उपवास- इस क्रम से तीन बार दोहराने पर नौ दिनों में यह तप पूर्ण होता है । अष्टकर्मसूदन–तप– अष्टकर्म, अर्थात् आठ कर्म और सूदन, अर्थात् छेद करना । ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों को छेदन करने के लिए जिस तप के द्वारा आराधना की जाती है, वह अष्टकर्मसूदन - तप कहलाता है । इस तप को करने की विधि निम्न प्रकार से है प्रथम दिन उपवास, दूसरे दिन एकासन, तीसरे दिन एक दाने ठाम चौविहार आयम्बिल, चौथे दिन एकलठाण, पांचवें दिन ठाम चौविहार दत्ति, छठवें दिन नींवी, सातवें दिन आयम्बिल, आठवें दिन आठ कवल का एकासन, अथवा आयम्बिल। इस प्रकार, यह तप आठ दिन में पूर्ण होता है। ऐसी आठ ओली (परिपाटी) करना, जिससे यह तप चौंसठ दिनों में पूर्ण होगा । तीर्थकर - मातृका - तपतीर्थंकर की माता की आराधना के लिए जो तप किया जाता है, उसे तीर्थंकर - मातृका - तप कहा जाता है । यह तप भाद्रपद शुक्ल की सप्तमी से त्रयोदशी तक के सात दिन एकासनपूर्वक करना चाहिए । सात दिन निरन्तर दूध, दही, घी, मालपुआ, लापसी और घेवर आदि द्वारा तीर्थकर की माता की पूजा करना चाहिए । इस तप की आराधना करने वालों को तीर्थंकर की माता बनने का सौभाग्य प्राप्त होता है तथा वे परम्परा से सिद्धत्व को प्राप्त करते हैं। यह तप सात वर्ष में पूर्ण होता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only 594 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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