________________
परमभूषण - तप, जिससे भविष्य में इष्टफल, वह आयतिजनक - तप और जिससे सौभाग्य
मिलता हो, वह सौभाग्यकल्पवृक्ष - तप है ।
सर्वांगसुन्दर-तप की विधि- आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक - प्रकरण के अन्तर्गत तपोविधि—पंचाशक की तीसवीं एवं एकतीसवीं गाथा में प्रस्तुत तपविधि की प्रक्रिया बताते हुए कहा है
सर्वांगसुन्दर, अर्थात् सभी अंग - उपांग श्रेष्ठ बन जाएं, ऐसा तप करने वाला सुन्दरता को प्राप्त करता है। इस तप की विधि इस प्रकार है
शुक्ल पक्ष में एक-एक दिन के अन्तर से आठ उपवास करना और प्रत्येक उपवास के पारणे में विधिपूर्वक आयम्बिल करना सर्वांगसुन्दर - तप है।
इस तप में क्षमा, नम्रता, सरलता आदि का नियम पालना, जिनपूजा और सामर्थ्य के अनुसार श्रमणों एवं दीन-दुःखियों आदि को दान देना चाहिए । इन्द्रियजय-तप
यह तप इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के कारण इन्द्रियजय-तप कहलाता है। इस तप की विधि इस प्रकार है
प्रथम परिमड्ड, वियासण या एकासन, नींवीं, आयंबिल और उपवास - इस प्रकार पांच दिन करने से एक इन्द्रिजय - तप की ओली होती है। इसी प्रकार, पांच इन्द्रियों की जय के लिए पांच ओलीजी करना पड़ती है। पच्चीस दिनों में यह तप पूरा होता है। जिस दिन जिस इन्द्रिय का तप होता है, उस दिन उसी तप का जाप करना
चाहिए ।
कषायमंथन-तप
कषाय अर्थात् संसार और मंथन अर्थात् मथ देना, चूर देना । संसार को मथकर मोक्ष देने वाला । यह तप कषायमंथन - तप कहलाता है, जिसकी विधि निम्न है
क्रोध, मान, माया, लोभ- इन चार कषायों के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन - इस प्रकार से कुल सोलह भेद होते हैं। इन कषायों को जीतने के लिए चार ओली के रूप में सोलह दिन तक यह तप किया जाता है। प्रथम दिन एकासन, दूसरे दिन नींवीं, तीसरे दिन आयम्बिल और चौथे दिन उपवास, इस प्रकार
2 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 19/30, 31 पृ. 345
-
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
593
www.jainelibrary.org