SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 606
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तप के विविध प्रकार (प्रकीर्ण तपों का स्वरूप एवं उनकी विधि) - छः प्रकार के बाह्य एवं छः प्रकार के आभ्यन्तार-तपों का उल्लेख आगमों में भी प्राप्त है, परन्तु अन्य भी ऐसे तप हैं, जो मोक्ष के कारण हैं, जिनका उल्लेख स्पष्ट रूप से आगमों में नहीं है, अतः उनकी चर्चा करना आवश्यक है, क्योंकि ये तप भले ही आगमों में उल्लेखित नहीं हैं, पर आगम-विरुद्ध भी नहीं हैं, क्योंकि ये तप भी बारह प्रकार के तपों के अन्तर्गत ही हैं। प्रकीर्णक-तपों की चर्चा आगे की गाथाओं में करेंगे। आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण की तपोविधि-पंचाशक की चौथी एवं पांचवीं गाथाओं में' इन तपों का प्रतिपादन किया है। वे लिखते हैं तीर्थंकरों द्वारा उनकी दीक्षा, कैवल्यज्ञान तथा निर्वाणप्राप्ति के प्रसंग पर जो तप किए जाते हैं, वे प्रकीर्णक-तप कहलाते हैं। प्रकीर्णक-तप के अनेक भेद हैं। इन तपों में जो दीक्षा आदि का आलम्बन है, वह अतिशय शुभभावरूप है, इस कारण ये तप भी इस लोक और परलोक में हितकारी होने के कारण सद्गुणों के आविर्भाव में सहायक हैं। भव्य जीवों के लिए और विशेष रूप से अव्युत्पन्न बुद्धि वाले सामान्य जीवों के लिए तो ये निश्चय ही उपकारी हैं, हितकारी हैं। वैसे तो सभी तप श्रेष्ठ और हितकारी ही होते हैं, क्योंकि तप का कार्य तो एक ही है कि कर्मों के काष्ठ को जलाकर समाप्त कर देना, फिर भी अनेक प्रकार के तपों का उल्लेख इसलिए किया गया है कि जिससे जीव अपनी सुविधानुसार एवं शक्ति के अनुसार तप करते हुए मुक्ति को प्राप्त कर सके। तीर्थकर-निर्गमतप- आचार्य हरिभद्र पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत तपोविधि-पंचाशक की छठी गाथा में तीर्थकर-निर्गमतप का प्रतिपादन करते हुए कहते तीर्थकर जिस तप के द्वारा संयम ग्रहण करते हैं, वह तप तीर्थंकरनिर्गमनतप कहलाता है। आचार्य हरिभद्र पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत् तपोविधि-पंचाशक की सातवीं गाथा में इस तप के स्वरूप को बताते हुए लिखते हैं 'पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-19/4,5- पृ. - 336 2 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 19/6 - पृ. - 337 585 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy