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सु = श्रेष्ठ प्रकार से, आ = अकाल। इस प्रकार, कालादि का ध्यान रखते हुए अध्याय-अध्ययन करना, अर्थात् सुष्ठु प्रकार से अकाल, काल आदि की मर्यादा रखते हुए अध्ययन करना स्वाध्याय है। स्वाध्याय के पांच भेद हैं1. वाचना, 2. पृच्छना, 3. परावर्तना, 4. अनुप्रेक्षा और 5. धर्मकथा। ध्यान- चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहते हैं। ध्यान के चार भेद हैं- 1. आर्तध्यान, 2. रौद्रध्यान, 3. धर्मध्यान और 4. शुक्लध्यान । आर्तध्यान और रौद्रध्यान- ये दो ध्यान अप्रशस्त ध्यान हैं। ये दो ध्यान नरक, तिर्यंच-गति के द्योतक हैं, अतः संसार के दुःखों का बीज हैं, अतः ये दो ध्यान त्याज्य हैं। शेष दो ध्यान प्रशस्त ध्यान हैं, जो सद्गति और सिद्धगति के कारण हैं, अतः अन्तिम दो ध्यान-तप रूप हैं। उत्सर्ग- उत्सर्ग, अर्थात् त्याग करना। उत्सर्ग को व्युत्सर्ग, कायोत्सर्ग भी कहते हैं।
___ध्यान आदि में काया का त्याग करना ही व्युत्सर्ग, उत्सर्ग तथा कायोत्सर्ग है। जो काया से, खड़े होने में, अथवा बैठने में हलन-चलन की चेष्टा नहीं करता है, उसे व्युत्सर्ग-तप कहते हैं।
उत्सर्ग-तप के द्रव्य और भाव से दो भेद किए हैं तथा द्रव्य के चार भेद और भाव के चार भेद किए हैं। द्रव्यव्युत्सर्ग के चार भेद- गण, देह, आहार और उपधि ।
प्रतिमाकल्प धारण करते समय गण का त्याग करना। देह- शारीरिक क्रियाओं में तथा संलेखना आदि में शरीर का त्याग करना। आहार- अकल्पनीय आहार का त्याग करना एवं शरीर जीर्ण होने पर आहार का त्याग करना। उपधि- वस्त्र, पात्रादि का त्याग करना। भाव-व्युत्सर्ग के चार भेद- क्रोध, मान, माया और लोभ ।
इन चारों कषायों का त्याग करना भाव-व्युत्सर्ग है।
प्रश्न उपस्थित होता है कि जीवित ही काया का त्याग क्यों किया जाता है ? क्या मरने के पश्चात् काया का त्याग करना होता है ?
गण
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