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________________ स्थविरकल्प ही अधिक लाभकारी है, इसलिए प्रतिमाकल्प स्वीकार करते समय द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि की अपेक्षा से गुरुलाघव की विचारणा ही उचित है। प्रतिमाकल्प की दृष्टान्त द्वारा पुष्टि- आचार्य हरिभद्र ने भिक्षुप्रतिमा -कल्पविधि-पंचाशक की सत्ताईसवीं, अट्ठाईसवीं एवं उनतीसवीं गाथाओं में विशेष रूप से प्रतिमाकल्प में उदाहरणों के माध्यम से यह स्पष्ट किया है जैसे राजा के हाथ में वायुजनित लूता नामक रोग को मंत्र आदि से दूर करने का उचित प्रयत्न किया जा रहा हो, ऐसे समय में राजा को सांप आदि डंस ले या अन्य रोग हो जाए, जिससे वह लूता-रोग की चिकित्सा न कर सके, तो वैद्य अनर्थ को दूर करने के लिए सर्पदंश की जगह को काटने व सेंकने की क्रिया करके चिकित्सा करते हैं और चल रही लूता-रोग की चिकित्सा बंद कर देते हैं, क्योंकि वैसा करने से ही राजा का कल्याण होगा और सर्पदंश से राजा की मृत्युरूप अनर्थ नहीं होगा। इस लोक में सर्वत्र परिस्थिति के अनुरूप कार्य ही कल्याण का कारण बनता है, इसलिए सर्पदंश की स्थिति में काटने आदि की क्रियाएँ ही कल्याण का कारण बनती हैं, लूता-रोग निवारण की क्रिया नहीं, उसी प्रकार कर्मरोग की प्रव्रज्यारूप चिकित्सा को भाव से स्वीकार करने वाले और स्थविरकल्प के अनुरूप उसका पालन करने वाले साधु के लिए स्थविरकल्प मंत्र से लूतादि रोग को दूर करने के समान है और प्रतिमाकल्प सर्पदंशादि की स्थिति में काटने और सेंकने-रूप विशेष चिकित्सा के समान है, ऐसी कर्मविपाकरूप रोगों की चिकित्सा-विधि जानना चाहिए। प्रतिमाकल्प का विधान करने के पूर्व आप्तपुरुषों ने पूर्ण रूप से चिंतन करके प्रतिमा के स्वरूप का प्रतिपादन किया है। प्रतिमाकल्प कौन कब स्वीकार करे, इन सूक्ष्म-से-सूक्ष्म नियमों का स्पष्टीकरण किया है। आप्तपुरुषों ने पूर्ण रूप से यह भी स्पष्ट किया है कि लाभ-अलाभ. को जानकर ही प्रतिमा वहन करें। जिन-शास्त्रों में इस सम्बन्ध में सूक्ष्म-से-सूक्ष्म जानकारी दी, फिर इसके स्वरूप को गलत कैसे कहा जा सकता है। 1 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 18/27, 28, 29 2 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 18/30, 31, 32 324 - पृ. - 325 566 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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