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स्वाध्याय- स्वाध्याय पांच प्रकार का है। यह मतिरूप आँख को स्वच्छ बनाने वाले अंजन के समान है। स्मरणा- भूले हुए कार्यों को याद करना स्मरणा है। कोई कर्मरूपी शत्रु के सामने लड़ने के लिए तैयार हुआ हो, किन्तु शस्त्र भूल गया हो, तो वह युद्ध नहीं कर पाता है। ऐसे में प्रतिमाएं अहिंसा के अमोघ शस्त्र को याद दिलाने वाली हैं। वैयावृत्य- . भोजनादि से आचार्यादि की सेवा करना, यह कृत्यतीर्थंकर- पद प्राप्तिरूप फल को देने वाला है। गुणवृद्धि- इनसे ज्ञानादि गुणों की वृद्धि होती है। शिष्य-परम्परा- शिष्य-प्रशिष्यादि का वंश चलता है।
गच्छ से बाहर जाकर तप करना लाभकारी नहीं है, वैसे ही एक दत्ति (एक बार में जितना दान दिया जाए, उतना लेकर रहना) आदि अभिग्रह भी विशेष लाभकारी नहीं हैं, कारण कि इनसे स्वाध्याय-ध्यान आदि निरन्तर नहीं हो पाते हैं। स्वाध्याय आदि गच्छ में निष्कण्टक होते हैं, क्योंकि अनेक दत्ति लेने से शरीर स्वस्थ्य रहता है। वल्ल (एक प्रकार का दलहन), चना आदि का हल्का भोजन भी लाभकारी नहीं है, क्योंकि उससे धर्म-साधनरूप शरीर-संरक्षण नहीं हो पाता है। धर्म-साधनारूप शरीर का संरक्षण न हो, यह योग्य नहीं है।
इस प्रकार, सूक्ष्मदृष्टि से विचार करने पर प्रतिमाकल्प उसी प्रकार विशिष्ट लाभ का हेतु नहीं है, जैसे, पंचाग्नि तप आदि परमार्थरहित होने के कारण विशिष्ट लाभदायी नहीं होते हैं।
पंचाग्नि एवं प्रतिमा के स्वरूप को समकक्ष नहीं रखा जा सकता है, क्योंकि एक हिंसा का स्वरूप है और एक अहिंसा का स्वरूप है। आगम-पुरुषों ने अपनी प्रज्ञा से प्रतिमाओं के विधान का जो स्वरूप दिया है, वह अपने आप में परिपूर्ण है तथा इस प्रकार की कठिन साधना का स्वरूप सामान्य जीवों के लिए नहीं बताया है। उन्हें ही इन प्रतिमाओं का वहन करने का अधिकार दिया है, जो गच्छ में रहकर गुरु-आज्ञा में पूर्ण रूप से योग्यता को प्राप्त कर चुके हैं, अन्यथा नहीं, तो फिर इस विषय का विरोध क्यों
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