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चैविहार षष्टम का तप, अर्थात् निरन्तर दो उपवास करना होते हैं । (जिसमें छः समय के भोजन का त्याग होता है, उसे छट्ट कहा जाता है ।) इसमें दो उपवास होते हैं। दो उपवास में चार समय का भोजन, आगे और पीछे के दिनों में एकाशन करने से एक - एक समय का भोजन, इस प्रकार कुल छः समय के भोजन का त्याग होता है । इसमें ग्राम या नगर के बाहर हाथ लटका करके कायोत्सर्ग - मुद्रा में स्थित रहे। यह प्रतिमा तीन दिनों तक चलती है, क्योंकि अहोरात्र के बाद छट्ट किया जाता है ।
बारहवीं प्रतिमा का स्वरूप- बारहवीं प्रतिमा भी एक अहोरात्र की है। एक अहोरात्र प्रतिमा वहन करने के पश्चात् तीन दिन चौविहार उपवास करने का विधान है, इस कारण यह प्रतिमा चार दिन में पूर्ण होती है। प्रतिमा - वहन का समय कम है, पर साधना अति दुष्कर है। प्रस्तुत प्रतिमा में साधक की सहिष्णुता भी चरम सीमा में होना चाहिए, क्योंकि सहिष्णुता अभाव में यह प्रतिमा वहन करना अत्यन्त दुष्कर है। इस दुष्कर कार्य को सहनशीलता के द्वारा ही सुलभ करके सिद्धि को प्राप्त किया जा सकता है । प्रस्तुत प्रतिमा के विषय में आचार्य हरिभद्र ने भिक्षुप्रतिमा - कल्पविधि - पंचाशक की उन्नीसवीं एवं बीसवीं गाथाओं में प्रतिपादन किया है
अहोरात्र की प्रतिमा की तरह ही यह भी एक रात्रि की प्रतिमा है। इसकी
विशेषताएं निम्नलिखित हैं
1. चौविहार अट्ठम तप, अर्थात् निरन्तर तीन दिन का निर्जल उपवास करना होता है ।
2. ग्रामादि के बाहर, अथवा नदी के किनारे थोड़ा-सा आगे झुककर कायोत्सर्ग - मुद्रा में
खड़े रहना होता है ।
3. किसी एक पदार्थ पर पलक झपकाए बिना स्थिर दृष्टि रखे ।
4. शरीर के सभी अंगों को स्थिर रखे |
5. दोनों पैरों को समेटकर और हाथ लटकाकर (जिनमुद्रा के रूप में अवस्थित होकर) कायोत्सर्ग में रहे।
6. इसका सम्यक् पालन करने से लब्धि उत्पन्न होती है।
1 पंचाशक - प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 18/19, 20 पृ. 321
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