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________________ दसवीं प्रतिमा का स्वरूप प्रस्तुत प्रतिमा का काल भी सात दिवसीय ही है। इन तीनो प्रतिमाओं का कुल समय इक्कीस दिन का है। इक्कीस दिन में इन तीन प्रतिमाओं का वहन किया जाता है। प्रस्तुत प्रतिमा का स्वरूप नौवीं प्रतिमा से कठिनतम है, क्योंकि एक तो तिर्यन्च आदि के परीषहों को सहन करना और दूसरी तरफ शरीर को विषम आसनों में रखकर स्थिर रखते हुए शरीर के कष्ट को भी सहन करना । प्रस्तुत प्रतिमा के स्वरूप का कथन करते हुए आचार्य हरिभद्र भिक्षुप्रतिमा - कल्पविधि - पंचाशक की सत्रहवीं गाथा में' कहते हैं तीसरी सप्तप्रतिमा, अर्थात् दसवीं प्रतिमा पूर्वोक्त सप्तदिवसीय प्रतिमाओं जैसी ही है, किन्तु उसकी निम्न विशेषताएं हैं- गाय को दुहने के जैसे आसन से, अर्थात् नीचे पैर का पंजा ही जमीन पर हो और उसका पीछे का भाग ऊपर रहे, अथवा वीरासन (भूमि पर पैर रख सिंहासन पर बैठे हुए पुरुष के समान विचलित हुए बिना स्थित रहना), अथवा आम्रफल की तरह कुब्ज बैठना- इन तीनों स्थिति में से किसी एक स्थिति में रहे । इस प्रकार, ये तीन प्रतिमाएं इक्कीस दिनों में पूरी होती है । ग्यारहवीं प्रतिमा का स्वरूप- प्रस्तुत प्रतिमा वहन करने की अवधि एक अहोरात्र है। इसमें साधना के दिन कम हो गए, किन्तु साधना का स्तर बढ़ गया है। इसमें छट्ठम तप की आराधना करना होती है, क्योंकि एक अहोरात्र की साधना पूर्ण होने के पश्चात् भी दो दिन तक छट्ठम तप, अर्थात् निरन्तर उपवास किया जाता है। इसमें निरन्तर तीन दिनों तक का उपवास करना होता है। ऐसी दुष्कर साधना के स्वरूप को आचार्य हरिभद्र ने भिक्षुप्रतिमा-कल्पविधि - पंचाशक की अठारहवीं गाथा में स्पष्ट किया है, जो इस प्रकार है ग्यारहवीं प्रतिमा अहोरात्रि, अर्थात् एक दिवसीय परिमाण वाली है। इसकी विशेषताएं निम्नलिखित हैं पंचाशक - प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि - 18/17 - पृ. - 320 2 पंचाशक - प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 18/18- पृ. 320 1 Jain Education International For Personal & Private Use Only 561 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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