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________________ मातृस्थान- माता स्त्री होती है। स्त्रियों का स्थान ( आश्रय ) मातृस्थान कहलाता है । स्त्रियाँ प्रायः माया करती हैं, इसलिए यहाँ मातृस्थान का अर्थ माया है । यदि माया अनन्तानुबन्धी- कषाय - सम्बन्धी हो, तो वह व्यक्ति श्रमणत्व को प्राप्त नहीं होता है। चूंकि वह अप्रशस्त अध्यवसाय है, अतः उनमें मात्र रजोहरणादि द्रव्यलिंग होने से भाव की अपेक्षा से साधुता नहीं होती है और इससे आगमवचन का विरोध होता है। अतः आगम में कहा गया है कि साधु के सभी अतिचार संज्वलन - कषाय के उदय से होते हैं। अनन्तानुबन्धी आदि बारह कषायों के उदय से तो चारित्र का मूलतः नाश हो जाता है। संज्वलन - कषायरूप माया से उत्पन्न अतिचार चारित्र का घातक नहीं है, अतः अतिचार हो, तो भी अंतिम तीर्थंकर के साधुओं को सम्यक् चारित्र होता है संज्वलन - कषाय अति अल्प समय का होता है, अतः संज्वलन - कषाय चारित्र का घात नहीं कर सकता, क्योंकि यह कषाय इतना सूक्ष्म होता है कि कर्म - पुद्गलों में रस नहीं पड़ता है। I आचार्य हरिभद्र स्थितास्थितकल्पविधि - पंचाशक की इक्यावनवीं एवं बावनवीं गाथाओं में साधु के द्रव्य-भाव-रूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं संज्वलन - कषाय के उदय होने पर साधुता नहीं होती है, इसलिए जो संज्वलन के अतिरिक्त अन्य कषायों के उदय से संक्लिष्ट चित्त वाले हैं, माया में सदैव तत्पर हैं, धनरहित होने के कारण आजीविका के भय से ग्रस्त हैं, पारलौकिक - साधना से विमुख होकर इहलौकिक - प्रतिबद्धता से मूढ़ हैं, वे वस्तुतः साधु नहीं हैं। जो संसार - भीरु हैं, गुरुओं के प्रति विनीत हैं, ज्ञानी हैं, जितेन्द्रिय हैं, जिन्होनें कषायों को जीत लिया है, संसार से विमुक्त होने में यथाशक्ति तत्पर रहते हैं, वे वस्तुतः (भाव) साधु होते हैं । भिक्षु - प्रतिमा - कल्पविधि पंचाशक- प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 17/51, 52 पृ. 312 Jain Education International For Personal & Private Use Only 552 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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