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यहाँ प्रायः कहने का अभिप्राय यह है कि अधिकांश साधु ऐसे स्वभाव के होते हैं, किन्तु सभी ऐसे नहीं होते हैं। यह बात प्रथम, अंतिम और मध्यवर्ती - इन तीनों वर्गों के साधुओं के सम्बन्ध में जानना चाहिए ।
पुनः, यह प्रश्न किया गया कि ऋजुप्राज्ञ व्यक्ति स्वभाव से योग्य होने के कारण वे ही चारित्र - ग्रहण के योग्य हैं, ऋजुजड़ और वक्रजड़ स्वभाव वाले साधु तो चारित्र के योग्य हीं नहीं होते हैं ? आचार्य हरिभद्र स्थितास्थितकल्पविधि- पंचाशक की पैंतालीसवीं, छियालीसवीं एवं सैंतालीसवीं गाथाओं में इस प्रश्न का निराकरण करते हुए कहते हैं
ऋजुड़ता आदि से युक्त जीवों का भी चारित्र जिनेश्वरों के द्वारा बताया गया है। प्रव्रज्या के योग्य होते हैं, क्योंकि स्थिर और अस्थिर- इन दो प्रकार के भावों में से ऋजुड़ जीवों के स्थिर भाव शुद्ध होते हैं ।
ऋजुजड़- एक नगर के चतुष्पथ में गोचरी के लिए जाते हुए कुछ साधुओं ने नाचते हुए नटों को देखा और उनका नाटक देखने लगे। इसमें बहुत देर लग गई। जब वे आहार लेकर उपाश्रय में आए, तो गुरु महाराज ने पूछा- "मुनिवरों ! आज आपको अधिक देर कैसे हुई ?" तब उन मुनियों ने कहा- "आज नटों का नृत्य देखने लग गए।" गुरु बोले- "साधुओं को नाटक नहीं देखना चाहिए ।" मुनियों ने 'तथास्तु' स्वीकृ ति-सूचक शब्द कहकर मिथ्या दुष्कृत्य दिया । पुनः, किसी दिन उन्हीं साधुओं ने गोचरी के लिए जाते समय नर्तकियों का नाटक देखा और उन्हें उसी प्रकार अधिक देर हो गई । आहार लेकर जब वे उपाश्रय में आए, तो गुरु ने कहा- "आज फिर विलम्ब कैसे हुआ ?" वे मुनि बोले- "आज हमने नर्तकियों का नाटक देखा, अतः इतनी देर लग गई।" गुरुदेव ने कहा- "महानुभावों ! मैंने आपको पहले ही निषेध किया था कि नाटक नहीं देखना चाहिए, फिर आप नाटक क्यों देखने लग गए ?" तब मुनियों ने कहा- "आपने पुरुषों का नाटक देखने का निषेध किया था, आज तो स्त्रियों का नाटक था । हमने सोचा, पुरुषों का नाटक देखना निषिद्ध है, स्त्रियों का नहीं, अतः देखने लग गए।" गुरु महाराज ने
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