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________________ 1. दर्शन-प्रतिमा 2. व्रत-प्रतिमा 3. सामायिक-प्रतिमा 4. पौषध-प्रतिमा 5. नियम-प्रतिमा 6. अब्रह्म वर्जन-प्रतिमा 7. सचित्तवर्जन-प्रतिमा 8. आरम्भवर्जन-प्रतिमा, 9. प्रेष्यवर्जन-प्रतिमा 10. उद्दिष्टवर्जन प्रतिमा और 11. श्रमणभूत-प्रतिमा। श्रावक इन प्रतिमाओं के आचरण से अपने मन को उपशान्त-शान्त कर लेता है। इनके आचरण से श्रावक को दीक्षा की प्रेरणा प्राप्त होती है। आचार्य हरिभद्र ने स्पष्ट किया है कि यदि श्रावक इन प्रतिमाओं का वास्तविक रूप से पालन करता है, तो वह वास्तव में प्रव्रज्या के योग्य बन जाता है और योग्य बनकर ली गई दीक्षा ही प्रव्रज्या कहलाती है। आचार्य हरिभद्र के कथनानुसार श्रमण वही है, जिसका मन प्रशस्त हो गया है, अनुकूल-प्रतिकूल में समभाव में स्थिर रहता है। कोई व्यक्ति ऐसे शुद्ध परिणाम से ही श्रमणत्व प्राप्त कर सकता है। आचार्य हरिभद्र ने यह स्पष्टीकरण दिया है कि यदि अल्पवय में भी दीक्षा के योग्य बन जाते हैं, तो भी दीक्षा उन्हें उसी तरह ही दी जाती है, जिस तरह प्रतिमा पालन करने वालों को दी जाती है। फिर भी, आचार्य हरिभद्र के अनुसार भवविरह, अर्थात् मुक्ति को चाहने वाले को इन प्रतिमाओं का पूर्णरूपेण पालन करने के बाद ही दीक्षा लेना चाहिए। एकादश पंचाशक (साधुधर्म-विधि) आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत पंचाशक में साधुधर्म-विधि का निरूपण किया है। चारित्रसम्पन्न ही श्रमण है। उन्होंने चारित्र को दो भेदों में विभक्त करके देशचारित्र व सर्वचारित्र के लिए अलग-अलग अनिवार्य नियमों का प्रतिपादन किया है। देशचारित्र का धारक गृहस्थ-श्रावक होता है व सर्वचारित्र का धारक साधु होता है। आचार्य हरिभद्र ने सर्वचारित्र के पाँच भेदों को स्पष्ट करते हुए यह निर्देश दिया कि श्रमण सामायिक व गुरुसान्निध्य का विशेष ख्याल रखे, क्योंकि सामायिक-भाव से ही, अर्थात् समभाव से ही ज्ञान और दर्शन की प्राप्ति है। समभाव से ही चारित्र में श्रद्धा स्थित रहती है, श्रद्धा से ही गुरु के प्रति समर्पण भाव रहता है और समर्पण ही ज्ञान दर्शन का आधार है। जिनेश्वर परमात्मा की आज्ञा का उल्लेख करते हुए यह स्पष्ट किया है कि साधुओं को गुरु-आश्रय में ही रहना चाहिए, क्योंकि गुरुकुल में वास ही मोक्ष का साधन है। गुरुवास का त्याग नहीं करने वाले साधु ही श्रुतज्ञान व मुक्ति के योग्य बनते हैं, चारित्र में दृढ़ बनते हैं और गुरु उन्हें अपने पट्ट पर आसीन कर देते हैं। - दशयति-धर्म, जो साधु की पूँजी है, वह गुरुकुल-वास से ही सम्भव है। आचार्य हरिभद्र ने यह भी बताया कि गुरु कौन है? सम्यग्ज्ञान सद् अनुष्ठान युक्त ही सच्चा गुरु हैट अतः सच्चे गुरु की निश्रा में ही रहना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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