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में सक्षम बने। विशिष्ट अध्यवसाय के परिणामों के स्वरूप को आचार्य हरिभद्र प्रायश्चित्तविधि-पंचाशक की तीसवीं एवं एकतीसवीं गाथाओं में दर्शाते हैं
- पूर्वकृत अशुभ अध्यवसाय से बंधे हुए कर्मों की निर्जरा के लिए प्रायश्चित्तस्वरूप जितना शुभभाव अपेक्षित है, वही शुभभाव यहाँ आगमानुसार विशेष शुभभाव है और वही शुभभाव पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करने में समर्थ होता है। सामान्य रूप से किया गया शुभभाव सम्पूर्ण बद्ध कर्मों का नाश करने में समर्थ नहीं है। किसी भी तरह का सामान्य शुभभाव प्रायश्चित्त नहीं होता है, अन्यथा ब्राह्मी, सुन्दरी आदि द्वारा पूर्वभव में सामान्य रूप से किए गए आवश्यक करण (प्रतिक्रमण) रूप शुभभाव से ही प्रायश्चित्त हो गया होता, अर्थात् अनेक कर्मों का नाश हो गया होता और उन्हें शास्त्र-प्रसिद्ध स्त्रीत्व की प्राप्ति-रूप दोष नहीं लगता, इसलिए किसी भी तरह का सामान्य शुभभाव पूर्ण शुद्धि का कारण नहीं होता है। विशिष्ट शुभभाव उत्पन्न करने के तीन कारण- विशिष्ट शुभभावों को लाने के लिए भवभीरु होना अनिवार्य है, क्योंकि जो साधक भवभीरु है, वह शुभभावों में स्थित अवश्य रहेगा, अतः शुभभावों को उजागर करने के लिए जिनाज्ञास्वरूप शुभ-चिन्तन निरन्तर करते रहना चाहिए, जिससे शुभभावों में ही परिणति रहेगी। इन्हीं विशिष्ट शुभभावों को प्रकट करने के लिए आचार्य हरिभद्र प्रायश्चित्तविधि- पंचाशक की बत्तीसवीं एवं तैंतीसवीं गाथाओं में कुछ उपादानों का प्रतिपादन कर रहे हैं, जो इस प्रकार है
विशिष्ट शुभभाव ही शुद्धि का कारण है। विशिष्ट शुभभाव उत्पन्न करने के लिए अप्रमत्तता, छोटे-बड़े अतिचारों का स्मरण और अतिशय भव-भय- इन तीनों से युक्त होकर प्रयत्न करना चाहिए।
इस प्रकार, अप्रमत्तता, स्मरण-सामर्थ्य और अतिशय भव-भय के योग से ही विशुद्धि हेतुरूप प्रकृष्ट शुभाध्यवसाय प्रत्येक जीव में अपनी शक्ति के अनुसार अवश्य उत्पन्न होता है।
| पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 16/32, 33 - पृ. - 286, 287
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