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________________ व्यवहार के अनुसार आगम में अनेक प्रकार के प्रायश्चित्त कहे गए हैं, उन्हें आगम से जान लेना चाहिए। प्रतिसेवना, अर्थात् अपराध होने के आकुट्टिका, दर्प, प्रमाद और कल्प- ये चार हेतुगत भेद हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव- ये चार परिस्थितिगत भेद हैं। पुरुष अर्थात् व्यक्ति के आचार्य, उपाध्याय, वृषभ (प्रवर्तक), भिक्षु और क्षुल्लक- ये पाँच भेद हैं। एक बार, दो बार, तीन बार- इस प्रकार बार-बार दोषों को सेवन करने वालों के अनेक भेद हैं। प्रायश्चित्त-विधान के भी अनेक भेद हैं, इसलिए इस सम्बन्ध में अन्य आचार्यों के मत भी असंगत नहीं हैं। आचार्य हरिभद्र प्रायश्चित्तविधि-पंचाशक की अट्ठाईसवीं एवं उन्तीसवीं गाथाओं में प्रायश्चित्त के वास्तविक स्वरूप का वर्णन करते हैं ___ अशुभ अध्यवसाय से अशुभ कर्म का बन्ध होता है और यह अशुभ अध्यवसाय जिनाज्ञा का भंग करने से होता है। ___ शुभभाव से अशुभकर्म का नाश होता है। जिनाज्ञा का पालन करने से शुभभाव अवश्य ही होता है अर्थात् जो भाव जिनाज्ञा के अनुसार हैं, वही शुभ हैं। यह विशिष्ट शुभभाव ही यथार्थ प्रायश्चित्त है। विशिष्ट शुभभाव का स्वरूप- सामान्य शुभभावकों की निर्जरा करने में सक्षम नहीं हैं, क्योंकि अशुभ-कर्म का बन्ध अध्यवसाय की तीव्रता से होता है। जितनी तीव्रता से अशुभ अध्यवसाय के द्वारा कर्मबन्ध हुआ है, तो उतने ही विशिष्ट शुभ अध्यवसाय से अशुभ-कर्म की निर्जरा हो सकती है। आगम में वही शुभ अध्यवसाय मान्य है, जो विशिष्ट प्रकार का शुभ अध्यवसाय है। विशिष्टता से तात्पर्य है- शुभ अध्यवसाय की गहनता, अर्थात् शुभभावों में पूर्णतया एकाग्रता। गजसुकुमाल इतनी जल्दी कर्म को क्षीण नहीं कर सकते, परन्तु उत्कृष्ट शुभ अध्यवसायों, अर्थात् मनोभावों से ही वे पूर्वसंचित अशुभ-कर्मों की शीघ्र निर्जरा करने पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-16/28, 29 - पृ. सं. - 285 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 16/30, 31 - पृ. - 286 522 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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