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________________ जिससे पाप का छेदन होता है, वह पापछिद कहा जाता है (प्राकृत भाषा में पापछिद् शब्द का रूप पायच्छित्त बनता है), अथवा चित्त की जो प्रायः शुद्धि करे, उसे प्रायश्चित्त कहा जाता है। आवश्यक - चूर्णि के अनुसार, जो पापकर्मों को क्षीण करता है, वह प्रायश्चित्त है । जो प्रचुरता से चित्त - आत्मा का विशोधन करता है, वह प्रायश्चित्त है । जो चित्त - विशुद्धि का प्रशस्त हेतु है, वह प्रायश्चित्त है। असत्य आचरण का अनुस्मरण करना प्रायश्चित्त है । भाव से प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त तभी सफल है, जब वह भावपूर्वक किया जाता है । भाव के अभाव में प्रायश्चित्त घाणी के बैल की तरह है । घाणी में जुता हुआ बैल सुबह से शाम तक चलता है, घूमता है तथा सोचता है कि आज कितने कोसों की यात्रा हो गई होगी, पर जब आँख की पट्टी खुलती है, तब उसे पता चलता है कि वह सुबह जहाँ था, अब भी वहीं का वहीं हूँ। इसी तरह प्रायश्चित्त करता है और सोचता है कि सारे पाप नष्ट हो गए, परन्तु प्रायश्चित्त करने में भाव जुड़े ही नहीं थे, अतः भाव के अभाव से द्रव्य प्रायश्चित्त दोषों की शुद्धि किंचित मात्र भी कहीं कर पाया। जितने दोष थे, उतने दोषों से ही वह युक्त है, अतः प्रायश्चित्त भावयुक्त होना चाहिए । इसी बात को आचार्य हरिभद्र पंचाशक - प्रकरण के अन्तर्गत प्रायश्चित्तविधि पंचाशक की चौथी गाथा में स्पष्ट करते हैंभव्य, आज्ञारुचि युक्त (आगम में श्रद्धावान्), संविग्न और सभी अपराधों में उपयोग वाले जीव के लिए प्रायश्चित्त यथार्थ है, शुद्धि करने वाला है तथा इससे भिन्न शेष जीवों के लिए प्रायश्चित्त केवल द्रव्य से है, क्योंकि वह भावरहित होने के कारण शुद्धि करने वाला नहीं है । आचार्य हरिभद्र पंचाशक - प्रकरण के अन्तर्गत प्रायश्चित्तविधि पंचाशक की द्रव्य प्रायश्चित्त के स्वरूप का पुनः समर्थन करते हुए पाँचवीं एवं छठवीं गाथाओं में प्रतिपादन करते है कि आवश्यकचूर्णि - जिनदासगणिमहत्तर - 2 - पृ. 251 3 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 16 / 4 - पृ. 'पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 16 / 5, 6- पृ. 277, 278 2 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 16/7 से 13 - पृ. 278, 279 Jain Education International 277 For Personal & Private Use Only 515 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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