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________________ गुप्ति-विराधना आदि चौथे व्रत के अतिचार हैं। स्त्री आदि से युक्त बस्ती में रहना आदि सूक्ष्म अतिचार हैं। कामावेश से हस्तमैथुन करना आदि बादर-अतिचार हैं। उपाश्रय के मालिक के बालक आदि के प्रति ममत्व आदि रखना पाँचवें व्रत का अतिचार है। उपाश्रय के मालिक की वस्तुओं की कौओं आदि से रक्षा करना सूक्ष्म अतिचार है। सोना-चाँदी और जवाहरात आदि रखना बादर अतिचार है। दिन में लाया गया भोजन दिन में खाना, दिन में लाया गया भोजन रात में खाना, रात में लाया गया भोजन दिन में खाना और रात में लाया गया भोजन रात में खाना- ये छठवें व्रत के अतिचार हैं। अकल्प्यभोजन को ग्रहण करना, एषणा के सिवाय चार समितियों में प्रयत्न का अभाव, महाव्रतों की रक्षा करने वाली पच्चीस भावनाओं, अथवा बारह अनुप्रेक्षाओं का अनुभावन न करना, यथाशक्ति मासिकी आदि भिक्षुप्रतिमा, द्रव्यादि अभिग्रह और विविध तपों का सेवन न करना- ये क्रमशः पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना, प्रतिभा-अभिग्रह और तपरूप उत्तरगुणों के अतिचार हैं। उपर्युक्त अतिचार मूलगुणों और उत्तरगुणों सम्बन्धी हैं। इनके अतिरिक्त, जीवादि पदार्थों में अविश्वास, विपरीत प्ररूपण आदि भी अतिचार हैं। ये अतिचार पूर्वोक्त अतिचारों से भी बड़े हैं, क्योंकि ये सम्यक्त्व को दूषित करते हैं। उक्त सभी अतिचार आभोग (यह अकर्त्तव्य है- ऐसा ज्ञान), अनाभोग (यह अकर्त्तव्य है- ऐसे ज्ञान का अभाव) भय, राग-द्वेष आदि से होते हैं। इस प्रकार, अनेक प्रकार के अनेक अतिचार होते हैं, इसलिए उनकी पूर्णतया आलोचना करना चाहिए। आलोचना कैसे करें- आलोचना किस प्रकार करना चाहिए, आलोचना करने वाले को इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। आलोचक मोक्ष का इच्छुक बनकर, पापभीरु होकर, शल्यरहित बनकर आलोचना करे, जिससे उसके द्वारा की गई आलोचना सफल हो सके। इसी विषय का आचार्य हरिभद्र ने आलोचनाविधि पंचाशक की पैंतीसवीं गाथा में' प्रतिपादन किया है ___आलोचक को शल्य का उद्धार नहीं करने में होने वाले दुष्ट परिणामों (खोटे कर्मफल) को दिखाने वाले और शल्योद्धार करने में होने वाले लाभों को दिखाने 1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 15/35 - पृ. - 270 505 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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