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________________ मूलगुण, उत्तरगुण और उनके अतिचारों का स्वरूप- आचार्य हरिभद्र ने आलोचनाविधि-पंचाशक के अन्तर्गत तीसवीं गाथा से लेकर चौंतीसवीं तक की गाथाओं में मूलगुण आदि के स्वरूप का विशेष रूप से प्रतिपादन किया है साधुओं के प्राणातिपातविरमण से रात्रिभोजनविरमण तक के व्रत मूलगुण हैं। साधुओं के इन मूलगुणों का पालन तीन करण और तीन योग से, अर्थात् करने, करवाने और अनुमोदन करने, मन से, वचन से और काया से (3x 3 = 9) - इस प्रकार नव कोटियों से करना होता है। पिण्डविशुद्धि आदि से लेकर अभिग्रह तक के गुण उत्तरगुण कहलाते हैं (42 पिण्डविशुद्धि, 8 समिति-गुप्ति, 25 महाव्रत-भावना, 6 बाह्य और 6 आभ्यंतर- ये बारह प्रकार के तप, बारह प्रतिमाएँ, द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव- ये चार अभिग्रह- इस प्रकार कुल 103 उत्तरगुण हैं)। मूलगुण धर्मरूप कल्पवृक्ष के मूल (जड़) के समान हैं और उत्तरगुण उसकी शाखाओं के समान हैं। प्राणातिपातविरमणादि के एकान्द्रिय-संघट्टन (संस्पर्श) आदि अतिचार हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय सम्बन्धी संघट्टन, परिताप और विनाश- ये प्रथम व्रत के अतिचार हैं। निद्रासम्बन्धी मृषावाद आदि दूसरे व्रत के अतिचार हैं। बैठा-बैठा कोई साधु सो रहा हो और उससे पूछा जाए कि क्या वह सो रहा है, और वह मना करे कि वह सो नहीं रहा है, तो उसे मृषावाद-अतिचार लगता है। इसी तरह बूंदाबांदी हो रही हो और किसी साधु से पूछा जाए कि क्या वर्षा हो रही है ? यदि वह कहे कि नहीं, वर्षा नहीं हो रही है, तो उसे मृषावाद-अतिचार लगता है। ये अतिचार सूक्ष्म हैं। यदि इन्हीं अतिचारों का सेवन अभिनिवेश से हो, तो बादर-स्थूल-अतिचार लगता है। ___दूसरों के द्वारा नहीं दी गई तुच्छ वस्तु लेना आदि तीसरे व्रत के अतिचार हैं। नहीं दिए गए तृण, पत्थर के टुकड़े और राख आदि लेना सूक्ष्म अतिचार है। साधर्मिक आदि के शिष्य आदि सारभूत द्रव्य का ग्रहण करना बादर-अतिचार है। 504 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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