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शीलांगविधानविधि पंचाशक की पच्चीसवीं से लेकर उनतीसवीं तक की गाथाओं में 189 इस प्रकार से किया है
ऐसे शील का पालन कठिन होने से जो गुरु के उपदेश से संसार को अनन्त जन्म-मरण का हेतु जानकर और मोक्ष को जन्म - मृत्यु से रहित जानकर संसार से विरक्त बना हो, जो जिनाज्ञा की आराधना में निरवद्यता को जानकर मोक्षार्थी बना हो, जिसने इस चारित्र को निःशंक होकर विशुद्धभाव से स्वीकार किया हो और शक्ति के अनुरूप आगमोक्त क्रियाओं में उद्यत हो, साथ ही जिन क्रियाओं में असमर्थ हो, उन्हें भाव से करता हो, जो क्रियाएँ आगमोक्त नहीं हैं, उन्हें नहीं करता हो, जो कर्मदोषों को निर्जरित करते हुए सर्वत्र (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में) अप्रतिबद्ध, केवल आज्ञा में उद्धृत, एकाग्रचित्त का स्वामी, आज्ञज्ञ में अमूढ़लक्ष हो, आज्ञा - सम्बन्धी सुनिश्चित बोध वाला हो, 'प्रमाद से नुकसान होगा- ऐसा जानने से तेलपात्र धारक हो (मृत्यु के भय से तेल भरा कटोरा लेकर नगर में घूमने वाला) और राधावेधक [ उपद्रवों की चिन्ता किए बिना पुतली की आँख को वेधने वाले ] की तरह अत्यधिक अप्रमत्तापूर्वक रहे, वही इस चारित्र को पालने में समर्थ होता है, दूसरा नहीं, क्योंकि दूसरे क्षुद्र जीवों में ऐसी शक्ति नहीं होती है।
वास्तव में, अप्रमत्त रहने वाला ही चारित्र का पूर्णतः पालन कर सकता है तथा चारित्र का पूर्णतः पालन करने वाला ही भावसाधु है और यही भावसाधु अठारह हजार शीलांग का पालक होता है। भावसाधु ही वन्दनीय होते हैं । द्रव्यसाधु का कोई महत्व नहीं है। यदि कोई द्रव्यसाधु को वन्दन भी करता है, तो वह वन्दन करने वाला भावसाधु के गुणों का चिन्तन करते हुए ही वन्दन करता है, अतः उसकी वन्दना भावसाधु को ही है। आनन्दघनजी महाराज ने वासुपूज्य परमात्मा की स्तवना करते हुए कहा है“आतमज्ञानी श्रमण क हावे, बीजा तो द्रव्य लिंगी रे | 190
189 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 14/25 से लेकर 29 - पृ. सं. - 248
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'वासुपूज्यस्तवन - योगीआनन्दघन - गाथा - 6
1 पंचाशक - प्रकरण -
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आचार्य हरिभद्रसूरि - 14/30, 31 - पृ. 249
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