SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 504
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और स्वयं भद्रबाहुस्वामी ने उक्त विचारों का समर्थन करते हुए इक्कीसवीं एवं बाईसवीं गाथाओं में इसकी चर्चा की है। गीतार्थ और अगीतार्थ की आज्ञा में रहने वाले अन्य साधुओं की प्रवृत्ति सूत्र के विरुद्ध नहीं होती है, क्योंकि गीतार्थ कभी आप्तवचन का उल्लंघन नहीं करता है। चारित्रवान्, किन्तु सूत्रविरुद्ध प्रवृत्ति करने वाले को योग्य जानकर उसे ऐसा करने से रोकता है। इस प्रकार, उन दोनों का चारित्र परिशुद्ध होता है, अन्यथा चारित्र परिशुद्ध नहीं बनता है, इसलिए गीतार्थ और गीतार्थसहित- इन दो का विहार कहा है। उपर्युक्त विषय को प्रस्तुत प्रकरण में शीलांग के अठारह हजार भावों में घटित करते हुए आचार्य हरिभद्र ने शीलांगविधानविधि पंचाशक की तेईसवीं गाथा में प्रतिपादित किया है कि इस नियम से यहाँ अठारह हजार शीलांग-परिमाण ही सम्पूर्ण सर्वविरति का भाव है। ___श्रमण में अठारह हजार शिलांगों में से एक का भी कम न होना ही मान्य है। यदि एक भी कम हो, तो उन्हें वन्दन में अयोग्य माना है, अर्थात् शीलांग की पूर्णता ही उन्हें वन्दन का अधिकारी बनाती है। इसकी चर्चा आचार्य हरिभद्र ने शीलांगविधानविधि पंचाशक की चौबीसवीं गाथा में कही है। शीलांग की अठारह हजार की संख्या में से कभी भी एकाध भी कम नहीं होती है, क्योंकि प्रतिक्रमणसूत्र में अठारह हजार शीलांगों को धारण करने वालों को ही वन्दनीय कहा गया है, अन्यों को नहीं। जो साधु संकल्प के साथ व्रतों का पालन करता है, उसके लिए कोई भी कार्य दुष्कर नहीं है, अर्थात् कठिन से कठिन संयमपालन भी सरल, सहज हो सकता है, परन्तु इतना अवश्य है कि 18,000 शीलांगों का पालन पूर्णतया हर कोई नहीं कर सकता, कोई महान् साधक ही कर सकता है, जिसका प्रतिपादन आचार्य हरिभद्र ने 2 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 14/21, 22 - पृ. -247 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-14/23 - प्र. - 248 4 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 14/24 - पृ. - 248 484 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy