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________________ ही होते हैं, इसलिए यहाँ दो आदि के संयोग से होने वाले भेद नहीं कहे गए हैं, केवल सर्वपदों के अन्तिम भेद के आधार पर अठारह हजार भेद कहे गए हैं। ___ जिस प्रकार आत्मा का एक प्रदेश भी असंख्य प्रदेश वाला होता है, उसी प्रकार एक शीलांग भी अन्य अनेक शीलांग से युक्त होता है। यदि स्वतन्त्र एक शिलांग हो, तो वह शीलांग सर्वविरतिरूप नहीं कहा जाएगा, क्योंकि सभी शीलांग मिलकर सर्वविरतिमय शीलांग बनते हैं। जिस प्रकार आत्मा परिपूर्ण प्रदेश वाली है, उसी प्रकार शील (चारित्र) भी परिपूर्ण अंग वाला हो, तो ही सर्वविरति होती है। शील सर्वविरतिरूप अठारह हजार शीलांग वाला है। इनमें से एक भी कम हो, तो सर्वविरति नहीं होती। आचार्य हरिभद्र ने शीलांगविधानविधि की तेरहवीं से पन्द्रहवीं तक की गाथाओं में,' शील की अखण्डता अन्तःकरण के परिणाामों की अपेक्षा से है, इस प्रकार का कथन प्रस्तुत किया है। अखण्ड शील को विरति के परिणाम के आधार पर जानना चाहिए, न कि बाह्य-प्रवृत्ति के आधार पर, क्योंकि बाह्य-प्रवृत्ति भाव के बिना भी होती है। जिस प्रकार किसी ने सामायिक में स्थित तपस्वी को पानी में डाल दिया हो, तब साधु की काया अपकायिक-जीवों की हिंसा में प्रवृत्ति होने के बाद भी समभाव के परिणाम में चलित नहीं हो, तब वह साधु परमार्थ से अप्कायिक-जीवों की हिंसा में प्रवृत्त नहीं है- ऐसा समझना चाहिए। इस प्रकार, समभावमें स्थित साधु का आप्तवचन के अनुसार शैक्ष, ग्लान, आचार्य आदि की सेवा करते हुए क्वचिद् द्रव्यहिंसा में प्रवृत्त होने के बाद भी समभाव अविच्छिन्न रहता है, तो उसे अप्रवृत्त ही जानना चाहिए। आचार्य हरिभद्र ने शीलांगविधानविधि पंचाशक की सोलहवी एवं सत्रहवीं गाथाओं में,' अशुभभाव के बिना अशुभ प्रवृत्ति में रहते हुए भी शील की अखण्डता किस प्रकार रह सकती है, इसका उदाहरण के साथ समाधान प्रस्तुत किया है। पंचाशक-प्रकरण - आचाय हरिभद्रसूरि- 14/13, 14, 15- पृ. - 245 'पंचाशक-प्रकरण -आचार्य हरिभद्रसूरि- 14/16, 17 -पृ. -245, 246 482 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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