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इन शीलांगों की कुल संख्या इस प्रकार है- योग 3 x करण 3 x संज्ञा 4 x इन्द्रिय 5 x पृथ्वीकायादि 10 X श्रमणधर्म 10 = 18,000। शील के अठारह हजार भेदों का विवरण- आचार्य हरिभद्र ने शीलांगविधि-पंचाशक की छठवीं से नौवीं तक की गाथाओं में' शीलांग के अठारह हजार भेदों का विवरण इस प्रकार स्पष्ट किया है
आहारसंज्ञा से रहित होकर श्रोत्रेन्द्रिय के संयमपूर्वक क्षमायुक्त मन से पृथ्वीकाय आदि की हिंसा नहीं करना- यह श्रमणधर्म का प्रथम अंग है।
इसी प्रकार, मार्दव, आर्जव आदि दस धर्मों से युक्त मन से, आहारसंज्ञा से रहित होकर, श्रोत्रेन्द्रिय के संयमपूर्वक पृथ्वीकायिक आरम्भगत दस भेद से जीवों की हिंसा नहीं करता है। इसी प्रकार, अप्काय आदि के आधार पर कुल सौ भेद हुए। ये भेद श्रोत्रेन्द्रिय के हुए। इसी प्रकार, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय के योग से प्रत्येक के सौ-सौ भेद होते हैं, इसलिए कुल पांच सौ भेद हुए।
___ ये पांच सौ भेद आहारसंज्ञा के योग से हुए। शेष तीन संज्ञा के योग से प्रत्येक के पांच सौ-पांच सौ भेद हुए। इस प्रकार, कुल मिलाकर दो हजार भेद हुए।
ये दो हजार भेद मन से हुए। शेष वचन और काया से भी प्रत्येक के दो-दो हजार भेद होते हैं, जो कुल मिलाकर छ: हजार भेद हुए। ये छ: हजार भेद स्वयं न करने से हुए। अन्य से न करवाने से एवं अन्य का समर्थन नहीं करने से छ:-छ: हजार के भेद से अठारह हजार भेद होते हैं।
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत शीलांगविधि पंचाशक की दसवीं से बारहवीं तक की गाथाओं में,' अठारह हजार में से कोई भी भाग न हो, तो सर्वविरति ही नहीं होती है- इस तथ्य का प्रतिपादन किया है।
बुद्धिमानों को इस शिलांग में निम्न तथ्य जानना चाहिए। कोई भी शीलांग तभी सुपरिशुद्ध हो सकता है, जब शेष सभी शीलांग हों। इस प्रकार, ये शीलांग समुदित
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 14/10, 11, 12 – पृ. - 244
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