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आधाकर्म का स्वरूप- आचार्य हरिभद्र ने पिण्डविधानविधि-पंचाशक की सातवीं गाथा में आधाकर्म विषय का प्रतिपादन किया है कि साधु को लक्ष्य में रखकर आहार बनाना, अर्थात् साधु के लिए सचित्त-अचित्त आहार को बनाना, जैसे- सचित्त, फल, सब्जी, बीज आदि को अचित्त बनाना एवं अचित्त चावल, आटा को पकाना आधाकर्म-दोष कहलाता है।
आधाकर्म, अर्थात् जिस भोजन को बनाने में आधा निमित्त साधु का होता है और आधा स्वयं का होता है। साधु आधा निमित्त होने के कारण यह दोष आधाकर्म-दोष कहलाता है।
अधःकर्म का एक अर्थ हिंसा भी है। साधु ने हिंसा का त्रिविध प्रकार से त्याग किया है, अतः यदि गृहस्थ ने स्वंय साधु के लिए आहार बनाया हो, तो भी साधु को हिंसा के अनुमोदन का दोष तो लगता ही है। अनुमोदना तीन प्रकार की है(1) अधिकार होने पर भी पापकर्म का निषेध नहीं करने से अनिषेध-अनुमोदना। (2) पाप-प्रवृत्ति से तैयार की गई वस्तु का उपभोग करने से उपभोग–अनुमोदना। (3) पाप करने वालों के साथ रहने पर सहवास-अनुमोदना।
जिस प्रकार चोरी नहीं करने वाला भी चोरी करने वाले चोर को घर में रखने एवं चोर के साथ रहने पर सजा का पात्र बनता है, उसी प्रकार पाप न करने पर भी पाप करने वालों के सहवास से पाप की अनुमोदना का दोष लगता है।
इस प्रकार, यदि गृहस्थ साधु के उद्देश्य से हिंसा करता है, तो साधु को भी अनुमोदना का पाप लगता ही है। दूसरे, यदि साधु कहकर करवाए, तो करवाने का भी पाप लगता है, क्योंकि जैन-दर्शन में करना, करवाना और अनुमोदना करना- तीनों को ही समान माना है, पाप में भी तीनों समान हैं व पुण्य में भी तीनों समान ही हैं। उत्तराध्ययन में कहा है
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