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________________ पिण्डविधानविधि भिक्षाचर्या की विधि या आहार की विधि | भोजन ग्रहण करते समय आहार की गवेषणा करना, शुद्धता का ध्यान रखना आवश्यक है। श्रमण परम्परा में जो आहार दोषों से रहित है, वही शुद्ध आहार है । आचार्य हरिभद्र पंचाशक - प्रकरण के अन्तर्गत् पिण्डविधानविधि पंचाशक में पिण्डविधान का वर्णन करने के पूर्व प्रथम गाथा के द्वारा ' चरमतीर्थाधिपति भगवान् महावीर को नमस्कार करते हुए कहते हैं मैं भगवान् महावीर को नमस्कार करके गुरु के उपदेश के अनुसार श्रमणों के योग्य भक्तपान आदि ग्रहण सम्बन्धी पिण्डग्रहणविधि को संक्षेप में कहूँगा । आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक - प्रकरण के अन्तर्गत पिण्डविधानविधि - पंचाशक की दूसरी गाथा में यह निर्देश दिया है कि आहार के दोषों को टालकर आहार की गवेषणा करना शुद्ध पिण्डविधानविधि है । शरीर है, तो आहार की आवश्यकता होगी । चूंकि आहार के बिना यह शरीर जीवों की रक्षा एवं संयम - यात्रा का निर्वाह नहीं कर पाएगा, अतः आवश्यकतानुसार शरीर के लिए आहार आवश्यक है, परन्तु परमात्मा का आदेश है कि साधक अपने निमित्त बना आहार ग्रहण न करें, जो अपने लिए नहीं बना हुआ हो- ऐसे शुद्ध आहार की गवेषणा करें। इसी बात का समर्थन करते हुए आचार्य हरिभद्र कह रहें हैं कि गुरुजनों ने पृथ्वीकायिक आदि जीवों के संरक्षणरूप संयम - पालन एवं शरीर - रक्षा के लिए शुद्ध आहार (पिण्ड ) का विधान किया है। जो उद्गम आदि दोषों से रहित आहार है, वही शुद्ध है - ऐसा जानना चाहिए । उद्गम आदि दोषों की संख्याअन्तर्गत तीसरी गाथा में उद्गम आदि आचार्य हरिभद्र ने पिण्डविधानविधि - पंचाशक के दोषों की संख्या बताई है कि किस-किस प्रकार - Jain Education International पिण्डविधानविधि का अर्थ है- भोजन - ग्रहणविधि या 1 पंचाशक- प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 13/12 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 13 / 2 - 3 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 13/3 - पृ. सं. - 221 पृ. सं. - 221 पृ. सं. - 221 For Personal & Private Use Only 454 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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