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विशेषज्ञ होने के पश्चात् पुनः स्वगच्छ में आ जाएं, जिससे स्वयं की, गुरु की, समुदाय की अवहेलना तथा निन्दा न हो।
. भेद-प्रभेद-रूप में इस सामाचारी की चर्चा आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत पंचाशक की बयालीसवीं तथा तिरालीसवीं गाथाओं में' की है
ज्ञानादि के लिए गुरु से भिन्न आचार्य के पास जाकर आत्मसमर्पणपूर्वक उनके पास रहना उपसम्पदा-सामाचारी है। इसके तीन प्रकार बताए गए हैं- (1) ज्ञान-सम्बन्धी (2) दर्शन-सम्बन्धी (3) चारित्र-सम्बन्धी। ज्ञान-सम्बन्धी और दर्शन–सम्बन्धी उपसम्पदा भी पुनः तीन-तीन प्रकार की है तथा चारित्र-सम्बन्धी उपसम्पदा दो प्रकार की है। ज्ञान–सम्बन्धी उपसम्पदा के सूत्र-सम्बन्धी, अर्थ-सम्बन्धी और सूत्रार्थ-सम्बन्धी- ये तीन भेद हैं। इन तीनों भेदों के परावर्तन, अनुसन्धान और ग्रहण- ये तीन उपभेद हैं। इस प्रकार, ज्ञान-सम्बन्धी उपसम्पदा के कुल (3 x 3 = 9) नौ भेद हैं। दर्शन-प्रभावक सम्मतितर्क आदि ग्रन्थों की अपेक्षा से ये ही नौ भेद दर्शन अर्थात् श्रद्धान–सम्बन्धी उपसम्पदा के भी हैं।
.. सूत्र- अर्थसूचक वाक्य, अर्थ- सूत्र का व्याख्यान, परावर्तन- भूले हुए सूत्रादि को याद करना, अनुसन्धान- किसी ग्रन्थ के अमुक भाग के विस्मृत/नष्ट हुए भाग को याद करके उस स्थल पर जोड़ना, ग्रहण- नए सूत्र का अध्ययन करना।
चारित्र-सम्बन्धी उपसम्पदा के वैयावृत्य और तप- ये दो भेद हैं। इन दोनों भेदों के कालपरिमाण की अपेक्षा से यावत्कथिकी और इत्वरकालिका- ये दो भेद हैं। वैयावृत्य और तप के लिए अन्य आचार्य के पास आजीवन रहना यावत्कथिकी और थोड़े समय के लिए रहना इत्वरकालिका-उपसम्पदा है। उपसम्पदा की विधि- यह अन्य आचार्य की निश्रा में जाने की विधि है। उपसम्पदा कैसे होती है और किस विधि से उपसम्पदा ग्रहण करना चाहिए, इसका
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/42, 43 - पृ. सं. - 216
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