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सामाचारी के स्वरूप का प्रतिपादन आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत अध्याय की अड़तीसवीं गाथा में किया है।
स्वाध्याय आदि में मन की एकाग्रता भंग हो, तो साधुओं को वस्त्र - परिकर्म आदि कार्य करना चाहिए। यदि ऐसा कोई काम शेष न हो, तो गुरु से पूछकर अन्य साधुओं को उनके लिए आहार लाने के लिए निमन्त्रण देना चाहिए, अर्थात् उनसे कहना चाहिए कि मैं आप लोगों के लिए आहार लेने जाता हूँ ।
साधुओं को वैयावृत्त आदि किसी न किसी कार्य में लगे रहना चाहिए, जिससे अप्रमत्तदशा बनी रहे, क्योंकि प्रमादपूर्ण जीवन आत्मा का शत्रु है। प्रमाद ही अनन्त संसार है, प्रमाद ही दुःखों का अम्बार है, प्रमाद ही जन्म-मरण की प्रक्रिया है, प्रमाद ही हिंसा है और यही हिंसा नरक, तिर्यच आदि दुर्गतियों का द्वार है, अतः साधक हर समय शुभ एवं शुद्ध प्रवृत्ति के मार्ग में बढ़ता रहे, इसी उद्देश्य को आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक - प्रकरण के अन्तर्गत साधुधर्मविधि - पंचाशक की उनचालीसवीं एवं चालीसवीं गाथाओं में निम्नानुसार स्पष्ट किया है
मनुष्यभव, जिनवचन एवं धर्म में पुरुषार्थ दुर्लभ है, इसलिए इन तीनों को पाकर धर्मकार्य में कभी भी प्रमाद नहीं करना चाहिए ।
साधुओं की कार्य मणियों के उत्पत्तिस्थान में गए हुए निर्धन के रत्नग्रहण के समान है। जिस प्रकार रत्न की खान में गए हुए निर्धन की रत्नों को लेने की इच्छा अविछिन्न होती है, उसी प्रकार चारित्रसम्पन्न साधु की वैयावृत्त आदि करने की सतत इच्छा होती है। साधुओं के कर्त्तव्यों का फल भविष्य में मिलता है, जबकि रत्नों का फल तो वर्त्तमान में मिलता है, किन्तु वर्त्तमान से भविष्य में अधिक होता है, इसलिए वर्त्तमानकालिक रत्नों की प्राप्ति से अधिक महत्वपूर्ण भविष्यकालिक साधुकर्त्तव्य है । साधुकर्त्तव्यों के साधन (मनुष्यभव, आर्यक्षेत्र, आर्यजाति आदि) अनित्य हैं- यह स्पष्टतया जानना चाहिए। किसी कारणवश गुरु को पूछे बिना निमन्त्रित कर दिया हो, तो क्या करें
1 पंचाशक- प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/38 - पृ. - 214
2 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/39, 40 - पृ. – 214
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