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प्रतिपृच्छना - सामाचारी के सम्बन्ध में जिन - आचार्यों का मतभेद हैं, उस
मतान्तर का प्रकाशन आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत अध्याय की तैंतीसवीं गाथा में किया हैकुछ आचार्यों का कहना है कि पहले गुरु ने जिस काम को करने से मना कर दिया था, उस काम को करने की आवश्यकता पड़ने पर गुरु से फिर से पूछना प्रतिपृच्छना - सामाचारी है ।
यहाँ यह प्रश्न उपस्थित किया गया कि गुरु ने जिस काम को अनुचित हाने के कारण मना कर दिया, उसे करने के लिए फिर से पूछने में दोष क्यों नहीं है ? समाधान- इसमें दोष नहीं है, क्योंकि धर्मव्यवस्था उत्सर्ग और अपवाद से है । उत्सर्ग से जो कार्य पहले करने योग्य नहीं था, वह परिस्थिति - विशेष में करने लायक हो सकता है, इसलिए पहले मना किए गए कार्य को करने के लिए भी गुरु से फिर से पूछा जा सकता है, इसमें दोष नहीं है।
8. छन्दना - सामाचारीआहार, वस्त्र, पात्र आदि लाने बाद गुरु एवं सभी साधुओं को भावपूर्ण नम्र विनती करना कि मैं आहार आदि लेकर आया हूँ, आप इसे ग्रहण कर मुझे अनुगृहीत करें । आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत पंचाशक - प्रकरण के अन्तर्गत साधुसामाचारीविधि पंचाशक की चौंतीसवीं गाथा में छन्दना - सामाचारी के विषय में इस प्रकार कथन किया है
सर्वप्रथम भिक्षा में लाए हुए भोजनादि हेतू गुरु की आज्ञा से बाल, ग्लान, आदि को योग्यता के अनुसार निमन्त्रण देना छन्दना - सामाचारी है। मंडली में भोजन नहीं करने वाले विशिष्ट प्रकार के साधु को ही इस सामाचारी का पालन करना होता है ।
किस प्रकार के साधुओं को छन्दना - सामाचारी करना चाहिए, इसका प्रतिपादन आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत साधुसामाचारीविधि की पैंतीसवीं गाथा में किया हैजो आत्मलब्धिक हो, जो अट्ठम आदि विशिष्ट तप करता हो, पारणा करने वाला हो, जो असहिष्णुता के कारण मण्डली से अलग भोजन करने वाला हो, उस साधु
पंचाशक- प्रकरण
2 पंचाशक- प्रकरण
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आचार्य हरिभद्रसूरि - 12 / 33 - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/34 -
पृ. - 212
पृ. - 213
'पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12 / 35- पृ.
213
2 'पंचाशक- प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/36 - पृ. 213
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