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________________ निसीहि भावपूर्वक होना चाहिए, क्योंकि कोई भी क्रिया करें, तो उसमें भावों की प्रमुखता होती है। भाव के अभाव में श्रेष्ठ से श्रेष्ठ क्रिया भी उसी प्रकार व्यर्थ हो जाती है, जिस प्रकार अभव्य जीव दीक्षा लेकर गौतम स्वामी जैसा चारित्र पालता है, पर भाव के अभाव में श्रेष्ठ चारित्र भी मुक्ति का कारण नहीं बनता है। यही बात योगी आनन्दघन ने अनन्तनाथ भगवान् की स्तुति करते समय कही है देव गुरु धर्म नी शुद्धि कहो किम रहे। किम रहे शुद्ध श्रद्धान आणो।। शुद्धं श्रद्धान विण सर्व किरिया करि, छारपर लीपणो तेह जाणो।।' आचार्य हरिभद्र ने भी प्रस्तुत पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत साधुसामाचारी-विधि पंचाशक में नैषेधिकी-सामाचारी का वर्णन करते हुए पच्चीसवीं गाथा में भाव-प्रधान निसीहि के विषय में स्पष्ट किया है जो साधु सावद्ययोग से रहित है, उसी की निषिधिका भावपूर्वक होती है। सावद्ययोग सहित साधु की 'निसीहि' शब्दोच्चारण मात्र है। 6. आपृच्छना-सामाचारी- रत्नत्रय की साधना से कोई भी कार्य गुरु को पूछकर करना चाहिए, चाहे कार्य छोटा हो या बड़ा, परन्तु गुरु से बिना पूछे यदि कोई भी कार्य किया जाता है, तो वह स्वच्छंद-वृत्ति है। स्वच्छंद-वृत्ति साधु के लिए उन्मार्ग की द्योतक होती है, अतः हर कार्य गुरु को पूछकर ही करना चाहिए, जिससे किसी की भी दृष्टि में हम गलत एवं स्वच्छंद नहीं होंगे ? स्वच्छंद साधु कर्मबन्धन के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाता है, इसी वास्तविकता को आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत पंचाशक की छब्बीसवीं गाथा में वर्णित किया है सज्जनजिनवंदनविधि - श्री आनन्दघनजी - अनन्तनाथस्तवन - पृ. - 177 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/25 - पृ. - 210 1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/26 - पृ. - 210 2 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/27, 28, 29 - पृ. - 210, 211 439 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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