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प्रश्न उपस्थित किया गया है कि यदि उक्त प्रकार के गुरु के अभाव में हो, तो क्या करना चाहिए, अर्थात् तहत्ति कैसे कहना चाहिए ? इसका समाधान आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत सोलहवीं गाथा में किया है
पूर्वोक्त ज्ञान आदि गुणों से रहित गुरु यदि कुछ कहे, तो स्थिति को जानकर तहत्ति कहना भी चाहिए और नहीं भी कहना चाहिए। गुरु के जो वचन युक्तियुक्त हों, उनके लिए तहत्ति कहना चाहिए, जो युक्तियुक्त न हों, उनके लिए नहीं कहना चाहिए, अथवा संविग्न-पाक्षिक, अथवा गीतार्थ युक्तियुक्त या युक्तिरहित कुछ भी कहे, तो तहत्ति कहना चाहिए, किन्तु अगीतार्थ के वचन में तहत्ति नहीं कहना चाहिए, क्योंकि वह अज्ञानता के कारण असत्य वचन भी कह सकता है। यदि गीतार्थ की आज्ञा को तहत्ति कहकर स्वीकार नहीं किया जाता है, अर्थात् उसकी आज्ञा का पालन नहीं किया जाता है, तो शिष्य को मिथ्यात्व का भाजन बनना पड़ता है, क्योंकि गुरु जो आज्ञा दे रहे हैं, वह परमात्मा के वचन हैं, यदि उन सत्य जिन-वचनों का नहीं मानना ही मिथ्यात्व है। यही बात आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत पंचाशक के अन्तर्गत् सप्तदश गाथा में वर्णित की है
संविग्न (भवभीरु) गुरु यह जानता है कि दुर्भाषित आगमविरुद्ध उपदेश देने से कटु फल मिलता है, जैसा मरीचि के भव के मिथ्या उपदेश का फल भगवान् महावीर को मिला था, इसलिए वह कभी भी आगमविरुद्ध उपदेश नहीं देते हैं। अतएव संविग्न और संविग्नपाक्षिक गुरु के वचन के लिए निःशंक होकर 'तहत्ति' कहना चाहिए। उनके लिए तहत्ति न कहना मिथ्यात्व है।
प्रस्तुत सामाचारी का पालन करने वाला साधक कभी भी संयम के विरुद्ध प्रवृत्ति नहीं कर सकता है तथा हर कार्य करने में निश्चिन्त रहता है, क्योंकि जो कार्य वह कर रहा है, वह गुरु की आज्ञा से ही कर रहा है। यदि उसमें गलती भी हो जाए, तो उसके निवारण की जिम्मेदारी गुरु पर ही होती है, अतः हर समय गुरु की आज्ञा को 'तहत्ति' कहकर ही स्वीकार करते रहना चाहिए।
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-12/16 - पृ. - 206 * पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/17 – पृ. - 207
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