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________________ दु - दुष्कृत करने वाली आत्मा की निन्दा करता हूँ। क्क - मैंने पाप किया, इसका स्वीकार करना। उपशम से पाप को लांघ जाता हूँ। इसका सामूहिक अर्थ इस प्रकार है काया और भाव से नम्र बनकर भूल फिर से नहीं करूंगा- ऐसे भाव से युक्त होकर मैं दुष्कृत करने वाली आत्मा की निन्दा करता हूँ एवं मैंने जो पाप किया, उसे स्वीकार करता हूँ और उपशमभाव से पूर्वकृत पापों से रहित बन जाता हूँ- यह मिच्छामिदुक्कड़ पद के अक्षरों का संक्षिप्त अर्थ है। 3. तथाकार-सामाचारी- तथाकार का अर्थ होता है- जैसा कहा गया, वैसा करना, अर्थात् आदेश को 'तहत्ति' कहकर स्वीकार करना चाहिए। जो गुरु-आज्ञा में प्रवृत्त होता है, वह कभी भी संयम से स्खलित नहीं होता है तथा मिथ्यात्व के दोषों से स्वयं को बचा लेता है, अतः प्रज्ञाशील शिष्य को सदा गुरु-आज्ञा को 'तहत्ति' कहकर स्वीकार करते रहना चाहिए। इसी प्रकार का निर्देश आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत पंचाशक की चतुर्दश गाथा में दिया है कल्प और अकल्प में पूर्ण ज्ञान वाले, पांच महाव्रतों का यथोचित पालन करने वाले तथा संयम और तप से परिपूर्ण मुनियों के सम्मुख निःशंक होकर तथाकार करना चाहिए, अर्थात् 'आप जो कहते हैं, वह यथार्थ है, मैं उसे स्वीकार करता हूँइसके सूचक 'तहत्ति' शब्द का प्रयोग करना चाहिए। तहत्ति शब्द का प्रयोग कहाँ करना चाहिए, इसका भी निर्देश आचार्य हरिभद्र निम्न पन्द्रहवीं गाथा में देते हैं सूत्र की वाचना सुनते समय, आचार-सम्बन्धी उपदेश के समय और सूत्रार्थ के व्याख्यान के समय गुरु के सम्मुख निःशंक रूप से तहत्ति कहना चाहिए। 1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/14 - पृ. पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/15 -पृ. - 206 434 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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