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________________ व टीकाकार के नाम न तो मूल ग्रन्थ में उपलब्ध हैं और न टीका में ही प्राप्त हैं, फिर भी कुछ परवर्ती उल्लेखों के आधार पर श्रावकप्रज्ञप्ति को आचार्य उमास्वाति की कृति के रूप में भी स्वीकृत किया जाता है, परन्तु आज तक इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हुआ है। पंचाशक की अभयदेवसूरिकृत वृत्ति में और लावण्यसूरिकृत द्रव्यसप्तति में इसे हरिभद्र की कृति माना गया है। श्रावकप्रज्ञप्ति पर हरिभद्रसूरि ने एक संक्षिप्त टीका 'दिग्प्रदा' भी लिखी है, जिसमें अहिंसाणुव्रत और सामायिक व्रत आदि का विवरण है तथा तत्सम्बन्धी अनेक प्रश्नों का समाधान भी किया है और जीव की नित्यता- अनित्यता आदि दार्शनिक विषयों पर गम्भीर चिन्तन भी प्रस्तुत किया है। धूर्त्ताख्यान आचार्य हरिभद्र जहां अन्य धार्मिक एवं दार्शनिक - परम्पराओं के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाते हैं, वहीं अतर्कसंगत बातों एवं अंधविश्वास के प्रति विरोध भी प्रकट करते हैं। इस अपेक्षा से धूर्त्ताख्यान महत्वपूर्ण रचना है। आचार्य हरिभद्र की यह कृति व्यंग्यप्रधान है। इस ग्रन्थ में पौराणिक - परम्परा में विकसित हो रहे अंधविश्वासों का भरपूर खण्डन किया गया है। पुराणों में पाई जाने वाली कथाओं की अप्राकृतिक एवं अवैज्ञानिक मान्यताओं एवं प्रवृत्तियों का इस कथा के सहारे निराकरण किया गया है। इसमें व्यंग्य के माध्यम से मनगढ़ंत व असम्भव बातों को समझकर उनके त्याग की बात कही गई है, इसमें मध्यकालीन नारी के चरित्र एवं बौद्धिक विकास को भी उद्घाटित किया गया है। उपदेश पद आचार्य हरिभद्र की यह कृति 1040 गाथाओं से युक्त है। धर्म कथानुयोग के माध्यम से आचार्य हरिभद्र ने अल्पबुद्धि वालों के बोध के लिए इस ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ में जैनत्व के उपदेश को सरल सुगम्य भाषा में लौकिक कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। कथाओं के माध्यम से मानव पर्याय की दुर्लभता का अंकन किया गया है एवं मनुष्य जन्म की दुर्लभता को कई उदाहरणों द्वारा प्रतिपादित किया गया है। इस ग्रन्थ पर मुनि चन्द्रसूरि ने सुखबोधिनी टीका भी लिखी है। ध्यानशतकवृत्ति आचार्य हरिभद्र की यह वृत्ति आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण प्रणीत ध्यानशतक नामक ग्रन्थ पर लिखी गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ में ध्यान के चार भेदों (आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान) के विषय में विशद वर्णन किया गया है। जैन समाज के लिए ध्यान का यह अद्वितीय ग्रन्थ है । यतिदिन - कृत्य आचार्य हरिभद्र की यह कृति अनुपम है। प्रस्तुत ग्रन्थ में श्रमणाचार की चर्चा की गई है। आचार्य हरिभद्र ने इस ग्रन्थ में बताया है कि श्रमणों की दैनिक-चर्या व व्यवहार कैसा होना चाहिए। साथ Jain Education International For Personal & Private Use Only 28 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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