SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षट्दर्शन-समुच्चय यह आचार्य हरिभद्र की लोक-प्रसिद्ध दार्शनिक कृति है। यह रचना केवल 87 श्लोंकों में आबद्ध है। प्रस्तुत कृति संस्कृत में है। प्रस्तुत ग्रन्थ में बौद्धदर्शन, मीमांसा-दर्शन, चार्वाक-दर्शन, न्याय-वैशेषिकदर्शन, सांख्यदर्शन और जैन-दर्शन इन षट्दर्शन के सिद्धान्तों का अपने-अपने मतानुसार संक्षिप्त में विवरण प्रस्तुत किया गया है। इस कृति की विशेषता यह है कि भिन्न-भिन्न दर्शनों को खण्डन-मण्डन से परे होकर अपने यथार्थ स्वरूप में प्रस्तुत किया गया है। पंचवस्तुक आचार्य हरिभद्र की यह कृति पद्य में है। इसमें 1714 पद्य हैं। यह रचना प्राकृत भाषा में है। यह ग्रन्थ पाँच विभागों में विभक्त है। 1. प्रथम अधिकार में दीक्षा से सम्बन्धित विवेचन है। इसमें दीक्षा के प्रसंग पर होने वाली सारी विधियों का विस्तार से वर्णन किया गया है, अतः इस अधिकार का नाम 'प्रव्रज्या विधि' है। इस अधिकार में 228 पद्य हैं। 2. द्वितीय अधिकार में 381 पद्य हैं। इस अधिकार का नाम 'नित्यक्रिया-विधि' है। प्रस्तुत अधिकार में श्रमण-जीवन की नित्य करने की चर्चा का विधि-विधान है। 3. तृतीय अधिकार 'महाव्रतारोपण' की संज्ञा से अभिहित है। इसमें 321 पद्य हैं। प्रस्तुत अधिकार में बड़ी दीक्षा, अर्थात् पाँच महाव्रतों का आरोपण करने की विधि का निरूपण है, साथ ही इस अधिकार में स्थविर कल्प, जिनकल्प और उनसे सम्बन्धित उपाधि आदि की भी चर्चा की है। चतुर्थ अधिकार का नाम 'अनुयोगगणानुज्ञा' हैं। इस अधिकार में 434 गाथाएँ है। इस अधिकार में आचार्य-पदस्थापना, गण, अनुज्ञा, शिष्यों के पठन-पाठन से सम्बन्धित विधिविधानों का विवरण है। इसमें पूजा-स्तवन आदि से सम्बन्धित क्रियाओं की चर्चा की गई पंचम अधिकार में 350 गाथाएँ हैं। इस अधिकार का नाम 'संलेखना' है। प्रस्तुत अधिकार में संलेखना से सम्बन्धित विवरण प्रस्तुत किया गया है। इस कृति की 550 श्लोक-परिमाण शिष्यहिता नामक स्वोपज्ञटीका भी उपलब्ध है। वस्तुतः, यह ग्रन्थ श्रमणजीवन की चर्चा से सम्बन्धित है। प्रस्तुत ग्रन्थ पाँच अधिकारों में विभक्त होने के कारण इसका पंचवत्थुक (पंचवस्तु) नाम सार्थक है। श्रावकप्रज्ञप्ति (सावयपण्णति) आचार्य हरिभद्र की यह एक अनुपम कृति है। प्रस्तुत ग्रन्थ में आचार्य हरिभद्र ने श्रावकाचार के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचना की है। प्रस्तुत ग्रन्थ प्राकृत में है और 405 गाथाओं में संकलित है। ग्रन्थकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy