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करना चाहिए, क्योंकि जिनाज्ञा का पालन करने वाला शिष्य ही संयम का आराधक होता है, संयम के प्रति सदैव रुचिवाला होता है तथा गुरु की कृपा का पात्र होता है।
__ आचार्य हरिभद्र भी जिनाज्ञा में रहने वाले साधुओं के स्वरूप को बताते हुए चालीसवीं से तिरालीसवीं तक की गाथाओं में प्रस्तुत विषय का विस्तार से प्रतिपादन करते हैं
____ तीर्थकर की आज्ञा में रहने वाले साधु पांच समिति और तीन गुप्तियों से युक्त होते हैं, साधुधर्म के प्रति अनुरागी होते हैं, धर्म में दृढ़ होते हैं, इन्द्रियों और कषायों के विजेता होते हैं, गम्भीर होते हैं, बुद्धिमान होते हैं, शिक्षा के योग्य और महासत्व वाले होते हैं। वे उत्सर्ग और अपवाद को जानने वाले तथा यथाशक्ति उनका पालन करने वाले होते हैं, विशुद्ध भाव वाले होते हैं। वे स्वाग्रह से मुक्त होकर आगम के प्रति सम्मान-भाव वाले होते हैं।
द्रव्य, क्षेत्र, काल काल आदि में प्रतिबंध से रहित सभी गुणाधिक जीवों, दुःखी जीवों और अविनीत जीवों पर क्रमश: मैत्री, प्रमोद और करुणा-भाव होते हैं और जो माध्यस्थ-भावना वाले होते हैं, वे अवश्य जिनाज्ञा की आराधना करने की इच्छा वाले होते हैं। आगम से परमार्थ के स्वरूप को जानने वालों को, हमेशा सम्यक् चारित्र का परिपालन करने वाले साधुओं को सभी नए एवं शास्त्रानुसार साधु के रूप में जानना चाहिए।
____ ज्ञान और दर्शन के बिना चारित्र का कोई अर्थ नहीं है। तत्त्वार्थ-सूत्र में यही बात कही गई है
'सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्राणिमोक्षमार्गः, अर्थात् दर्शन, ज्ञान और चारित्र मिलकर ही मोक्षमार्ग के साधन हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि चारित्र के साथ ज्ञान
और दर्शन का कितना महत्व है। चारित्र के बिना ज्ञान और दर्शन हो सकते हैं, परन्तु ज्ञान और दर्शन के बिना चारित्र नहीं होता है, साथ ही यह भी सत्य है कि चारित्र के बिना मुक्ति भी नहीं है। चारित्र ही मुक्ति का प्रदाता है, अतः चारित्रशुद्धि अति आवश्यक
'तत्त्वार्थ-सूत्र – आ. उमास्वाति- 1/1
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