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वह कौए का उदाहरण इस प्रकार है- स्वादिष्ट, शीलत व सुगंधित पानी वाले तालाब के किनारे कुछ कौए बैठे थे। उनमें से कुछ कौए प्यास लगने पर पानी की खोज करने लगे और वे मृगतृष्णा के सरोवरों की ओर जाने लगे। उस समय किसी कौए ने उन्हें टोका और उसे तालाब में ही पानी पीने को कहा, जहाँ पर वे बैठे थे। कुछ ने उसी तालाब में पानी पिया और अन्य अनेक उसकी अवज्ञा करके मृगतृष्णा की ओर गए, जहाँ पानी न मिलने के कारण वे मृत्यु को प्राप्त हो गए और जिन्होंने उस तालाब का पान पिया, वे जीवित रह गए।
उपर्यक्त उदाहरण को प्रस्तुत प्रसंग में इस प्रकार घटित किया जा सकता है कि सुंदर तालाब के समान गुरुकुल गुणों का स्थान है। कौओं के समान धर्मार्थी जीव है। पानी के समान चारित्र है। गुरुकुल से बाहर रहना मृणतृष्णा-सरोवर के समान है। कौओं को शिक्षा देने वाले समझदार कौए के समान गीतार्थ हैं। चारित्र के योग्य और धर्मरूप धन को पाने वाले जो थोड़े से साधु गुरुकुल में रहे, वे तालाब का पानी पीने वाले कौओं के समान हैं।
__ इस प्रकार के उदाहरण से शिष्य को समझना चाहिए कि गुरुकुल में रहने वाला ही सम्मान का पात्र होता है, अतः उसे गुरुकुल का परित्याग नहीं करना चाहिए। जो गुरु की आज्ञा नहीं मानते हैं, उनकी दशा मृगतृष्णा के सरोवर की ओर गए हुए कौओं के समान होती है। ज्ञातव्य है कि गुरुकुल के त्यागी शिष्य को कोई भी सम्मान नहीं देता है। यदि कोई गुरुकुलवास का त्याग करने वाले गुरुद्रोही को सम्मान देता भी है, तो वह भी शासन-द्रोही, गच्छद्रोही, गुरुद्रोही हैं। इसी बात का समर्थन करते हुए आचार्य हरिभद्र साधुधर्मविधि-पंचाशक के अन्तर्गत् प्रस्तुत उनचालीसवीं गाथा में' कहते
गुरुकुल का त्याग करने वाले शिष्य का सम्मान करना उन्मार्ग का पोषण करना है, अर्थात् अनुमोदन करना है। जो संघ, समाज एवं स्वयं के लिए अनिष्टकर है, इसलिए गुरुकुल में रहे हुए जिनाज्ञा या गुर्वाज्ञा का पालन करने वालों का ही सम्मान
'पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/39 -पृ. - 196 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/40 से 43 - पृ. - 196
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