________________
दर्शनसप्ततिका
आचार्य हरिभद्र की इस कृति में 120 गाथाओं में उपदेश-पद संगृहीत हैं। इस ग्रन्थ पर मानदेवसूरि ने टीका लिखी है। प्रस्तुत प्रकरण में सम्यक्त्व एवं श्रावक-धर्म के रूप में व्रतों के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। ब्रह्मसिद्धि-समुच्चय
यह भी आचार्य हरिभद्र द्वारा रचित ग्रन्थ है। प्रस्तुत ग्रन्थ में 423 पद्य हैं। यह कृति संस्कृत में है। इस ग्रन्थ में सर्वधर्म-समन्वय की चर्चा की गई है एवं प्रथम पद में भगवान् महावीर को नमन करके ब्रह्मादि के स्वरूप को बताने का प्रयास किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ पूर्णरूपेण उपलब्ध नहीं है। सम्बोध-प्रकरण
प्रस्तुत कृति आचार्य हरिभद्र द्वारा रचित है। यह रचना प्राकृत में है। इस कृति में 1580 पद्य है, जिन्हें बारह अधिकारों में बाँटा गया है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में आचार्य हरिभद्र ने अपने युग के विभिन्न धर्मसम्प्रदायों में रहे हुए मतभेदों को उजागर करते हुए स्पष्ट किया है कि परमात्मा के मार्ग में चलते हुए परम तत्त्व को जानने का और अपनाने का प्रयत्न नहीं हुआ, तो वह धर्म-मार्ग नहीं है। आचार्य हरिभद्र ने धर्म को स्पष्ट करते हुए कहा कि जहाँ क्रोध, मान, माया और लोभ- इन कषायों की आत्मा से निवृत्ति हो, विषय-वासनाओं का त्याग हो, वही धर्म-मार्ग है। हरिभद्र की दृष्टि में वह धर्म अथवा धर्म-मार्ग नहीं है, जिसमें हिंसा, घृणा, राग, द्वेष, मोह, अहंकार, मत्सर आदि रहे हुए हों।
आचार्य हरिभद्र ने यह भी स्पष्ट किया कि मोक्ष हमारे धर्म में ही है- ऐसा एकान्तवाद नहीं है। आचार्य हरिभद्र की दृष्टि में वे श्रमण श्रमण नहीं, जो शिथिलाचारी हैं। उन्होंने चारित्रिक-पतन को उजागर कर उन श्रमणों को लताड़ा भी है।
आचार्य हरिभद्र ने मध्य अधिकार में आत्मशुद्धि हेतु जिनपूजा और जिनपूजा में लगने वाली आशातनाओं को भी प्रस्तुत किया है।
आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत अधिकार में कुगुरु, गुरु सम्यकक्त्व, देव का स्वरूप, श्रावक-धर्म, व्रत- प्रतिमाएँ, आलोचना तथा मिथ्यात्व आदि का विशद वर्णन किया है।
प्रस्तुत कृति को रचने का तात्पर्य यही था कि संघ-समाज में फैल रही विकृतियों को दूर किया जाए। धर्मबिन्दु प्रकरण
आचार्य हरिभद्र द्वारा रचित प्रस्तुत ग्रन्थ 542 सूत्रों में आबद्ध है। प्रस्तुत ग्रन्थ में श्रमण एवं श्रावक-धर्म की चर्चा की गई है। इस ग्रन्थ को चार अध्यायों में विभक्त किया गया है। आचार्य हरिभद्र ने
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org