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दार्शनिक-सिद्धान्तों पर विजयश्री का वरण करते हुए दिखाया गया है। विषय के अनुरूप प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम भी सार्थक हो रहा है। शायद आचार्य हरिभद्र ने विषयानुरूप ही प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम अनेकान्त जयपताका रखा होगा? इस ग्रन्थ में छः अधिकार हैं। प्रथम अधिकार में वस्तु के सद्-असद् स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। दूसरे अधिकार में वस्तु के नित्यत्व - अनित्यत्व का विवेचन किया है। तृतीय अधिकार में वस्तु को सामान्य अथवा विशेष मानने वाले दार्शनिक मतों की समीक्षा की गई है तथा अन्त
वस्तु के सामान्य विशेषात्मक स्वरूप को सिद्ध करके अनेकान्तदृष्टि की उपस्थापना की गई है। चतुर्थ अधिकार में वस्तु के अभिलाप्य - अनाभिलाप्य मतों का वर्णन करते हुए उसे सापेक्षिक रूप से वाच्य एवं अवाच्य- दोनों निरूपित किया है। पंचम एवं षष्ठ अधिकार में बौद्धों के योगाचार दर्शन (विज्ञानवाद) की समीक्षा एवं मोक्ष सम्बन्धी तथ्यों को स्पष्ट किया गया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में अनेकान्तवाद को सर्वश्रेष्ठ दर्शाते हुए उसकी अन्य दार्शनिक सिद्धान्तों पर विजय को प्रकट किया है।
न्यायप्रवेशटीका
आचार्य हरिभद्र के इस ग्रन्थ के प्रणयन में उनकी उदारता व उनका वैदुष्य स्पष्ट झलकता है। उन्होंने स्वतंत्र दार्शनिक ग्रन्थों की रचना के साथ-साथ अन्य दार्शनिक-ग्रन्थों पर भी टीकाएँ लिखीं, जिनमें दिड्नाग के न्याय-प्रवेश पर उनकी टीका बहुत ही विख्यात है। आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत ग्रन्थ में न्याय सम्बन्धी बौद्ध के मतों का ही प्रतिपादन किया है। जैन परम्परा में बौद्धों के न्याय के अध्ययन के प्रति जो जिज्ञासा उद्भूत हुई, उसमें मूल हेतु प्रस्तुत ग्रन्थ ही है ।
धर्मसंग्रहणी
आचार्य हरिभद्र के दार्शनिक ग्रन्थों की श्रृंखला में इस कृति का भी अपना विशिष्ट स्थान है। प्रस्तुत ग्रन्थ में 1296 गाथाएं संकलित हैं। इस ग्रन्थ पर आचार्य मलयगिरि ने टीका भी लिखी है, जो संस्कृत में है। प्रस्तुत ग्रन्थ में धर्म के स्वरूप को समझाते हुए आत्मा के अनादिनिघनत्व, अमूर्त्तत्व, ज्ञायक-स्वरूप, सर्वज्ञता सिद्धि, आत्मा के कर्तृत्व- भोक्तृत्व आदि विषयों का विश्लेषण किया गया है। लोकतत्त्वनिर्णय
आचार्य हरिभद्र की उदार व्यापक दृष्टि लोकतत्त्वनिर्णय ग्रन्थ में हमें फिर देखने को मिलती है। प्रस्तुत ग्रन्थ जगत् के सर्जन संचालक के रूप में स्वीकृत किए गए विभिन्न मतों की असम्यकता तथा लोक के तात्त्विक स्वरूप का निरूपण किया गया है। आचार्य हरिभद्र ने धर्म के पथ पर चलने वाले योग्य एवं अयोग्य का विचार करते हुए यह निर्देश दिया है कि योग्य को ही धर्म का उपदेश देना चाहिए।
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